भारत में यूरोपीय कंपनियों का आगमन
भारत में यूरोपीय
कंपनियों का आगमन एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना थी, जिसने न केवल भारत के व्यापारिक परिदृश्य को बदल दिया बल्कि
देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति पर भी गहरा
प्रभाव डाला। 15वीं शताब्दी के अंत और 16वीं शताब्दी की शुरुआत में यूरोपीय देशों
ने नए व्यापारिक मार्गों की खोज शुरू की, जिसका मुख्य उद्देश्य एशिया, विशेषकर भारत, के बहुमूल्य संसाधनों—मसाले, कपड़ा और अन्य व्यापारिक वस्तुओं—पर नियंत्रण स्थापित करना था। सबसे पहले पुर्तगाली व्यापारी
भारत आए, इसके बाद डच, अंग्रेज और फ्रांसीसी व्यापारियों ने भी
अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास किया। व्यापारिक प्रतिस्पर्धा के इस दौर ने
धीरे-धीरे भारत की राजनीतिक स्थितियों को भी प्रभावित किया और अंततः ब्रिटिश शासन
की नींव रखी।
आज हम भारत में यूरोपीय कंपनियों का आगमन पर विस्तृत रूप से चर्चा करेंगे।
पुर्तगाली:-
सर्वप्रथम भारत में पुर्तगाली आये थे।
पुर्तगाल से भारत के लिए आने वाले यात्री -
1.
बार्थोलोमा डियास - भारत नही पहुच पाया
2.
बास्कोडिगामा – सर्वप्रथम भारत आने वाला एवं भारत के लिए
समुद्री मार्ग खोजने वाल पहल व्यक्ति।
3.
पेड्रो अल्बरेज अल्मेडा :– इसे ब्राजील का यूरोपीय खोजकर्ता
कहा जाता है।
4.
फ्रांसीसी डी अल्मेडा:– प्रथम पुर्तगाली वायसराय बन कर आया
5.
अल्फासो-डी अल्बुकर्क :– पूर्तगालियों का वास्तविक
सस्थापक माना जाता है।
6.
नीनो-डी-कुन्हा :- कोचीन के स्थान पर गोव को पुर्तगालीयों
का प्रशायसनिक केन्द्र बनाया।
7.
गार्सिया-डी-नोरन्हों
8.
अल्फासो-डी-सूजा
पूर्तगालियों ने एस्तादो द इण्डिया कंपनी बनाई।
भारत और यूरोप के मध्य अत्यंत प्राचीन काल से घनिष्ट व्यापारिक सम्बंध थे, प्रारम्भ
में इस व्यापार का मार्ग भारत के पश्चिम या पश्चिमी समुद्री तट लाल सागर और पश्चिम
एशिया के मध्य था।
15वीं
शताब्दी (1453)
में आटोमन या उस्मानी या तुर्की द्वारा पश्चिमी एशिया तथा
पूर्वी यूरोप पर अधिकार कर लेने से स्थल मार्ग से इस व्यापार को आघात लगा (1453 में
कुस्तुनतुनिया के पतन के बाद) ।
पुर्तगाल के शासक हेनरी द नेवीगेटर ने 15वीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत के लिए एक सीधे समुद्री मार्ग की खोज की
शूरुआत की। हेनरी अपने व्यापारी प्रतिद्वंदियों को कमजोर करते हुए अपने आर्थिक
उद्देश्यों को विस्तृत करना चाहता था। उसने व्यापारिक गतिविधियों के साथ-साथ यह भी
कहा कि वह अफ्रीका तथा एशिया के लोगों को ईसाई धर्म में परिवर्तित करना चाहता है।
जिससे तुर्की तथा अरबी शक्ति पर रोक लगाया जा सके।
तात्कालीन पोप अलेक्जैडंर छठा ने भी इसका सर्मथन किया था।
भारत के लिए सबसे पहले सन् 1486 में पुर्तगाली नाविक बार्थोलोमा डियास भारत आने के लिए प्रयास किया जो कि
असफल रहा।
वास्कोडिगामाः-
वास्कोडिगामा 8 जुलाई 1497 को पुर्तगाल के लिस्बन बंदरगाह से भारत के लिए
रवाना हुआ और 10 महीने की यात्रा करते हुए 20 मई, 1498 को भारत के केरल राज्य के कालीकट
(वर्तमान में कोझिकोड) बंदरगाह पर पहुंचा।
वास्कोडिगामा भारत की तीन बार यात्रा किया- 1498, 1502 और 1524।
एडम स्मिथ के अनुसार अमेरिका और भारत की खोज (समुद्री मार्ग) को मानवीय इतिहास
की दो महानतम् और महत्वपूर्ण घटना मानी जानी चाहिय।
वास्कोडिगामा जब कालीकट केरल पहुचा तो उसे गुजराती व्यापारी अब्दुल मुरीद/मनीद
से सहायता लेनी पडी।
वास्कोडिगामा पुर्तगाल के लिस्बन बंदरगाह से केप ऑफ गुड होप होते हुए भारत के
पश्चिमी तट कालीकट (केरल) पहुचा था।
जिस दिन वास्कोडिगामा भारत की धरती पर पहुचा उसके साथ चार जहाज और 118 नाविक
थे-
1.पाओलो-द-गामा - मुख्य चालक
2.साओ ग्रेबियाल – नाविक
3.साआ रफेल – चालक
कालीकट का राजा सामुद्री जिसे पुर्तगाली जमोरिन कहते थे, ने
वास्कोडिगामा एवं उसके सहयोगियों का भव्य स्वागत किया।
पश्चिती तट पर अरबी एवं वेनिस (इटली) के व्यापरियों का वर्चस्व
था। (जिसे जमोरिन तोडना चाहता था)।
पुर्गगालीयों ने शासक को इशाई समझा यहां एक मन्दिर मिला
जिसे मरिअम्मा मन्दिर कहा गया।
वास्कोडिगामा जिन वस्तुओं एवं सामानों को यहां से यूरोप
लेकर गया। उसे 60 गुना मुनाफे पर बेचा। (इन वस्तुओं में मुख्य रुप से जडी-बूटी, मशाले
एवं औषधी से सम्बंधित वस्तुऐ थी।)
पेड्रो
अल्बरेज कैब्राल:-
09मार्च1500 ईस्वी को 13 जहाजों के साथ पेड्रो अल्बरेज कैब्राल, लिस्बन बंदरगाह से भारत के लिए चला।
इसे ब्राजील का यूरोपीय खोज कर्ता कहा जाता है।
फ्रांसीसी-डी-अल्मेडा:-
फ्रांसीसी डी अल्मेडा 1505 में प्रथम पुर्तगाली वायसराय
बन कर भारत आया।
अल्मेडा ने नीले पानी की नीति या ब्ल्यू वॉटर पॉलसी लागू
की। इसका मुख्य उद्देश्य हिन्द महासागर की व्यापारिक गतिविधियों को नियन्त्रित
करना था।
पुर्तगाली समुद्री व्यापर के लिए जो लाइन्सेस प्रदान करते
थे उसके बदले कार्टाज नामक कर वसूल करते थे। भारत में मुगल भी कार्टाज दिया करते
थे। (जिसे बाद में पुर्तगाली वापस भी कर देते थे।) अल्मेडा भारत में 1509 तक
रहा।
अल्फांसो -डी-
अल्बुकर्क
अल्बुकर्क ने 1510 में बीजापुर के शासक यूसुफ आदिल को पराजित कर गोवा छीन लिया।
कृष्णदेव राय ने पुर्तगालियों को भत्कल (भटकल) में किला बनाने
की अनुमति दी। (UPSC PT-2024)
1503 में कालीमिर्च और मशालों के व्यापार पर एकाधिकार करने के उद्देश से
पुर्तगालियों ने कोचीन में अपनी पहली व्यापारिक कोठी स्थापित की थी। इस दौरान
अल्बुकर्क एक साधारण कर्मचारी के रुप में इस निर्माण में सहयोग किया था। इसके बाद
कन्नूर में 1505 में दूसरी फैक्ट्री स्थापित की।
अल्बुकर्क को पुर्तगालियों का वास्तविक स्थापक/संस्थापक
माना जाता है, इसने भारत में पुर्तगाली संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए पुर्तगाली पुरुषों को
भारतीय महिलाओं से विवाह करने कि लिए प्रेरित किया।
नीनो-डी-कुन्हाः-
सन् 1529 में नीनो डी कुन्हा भारत का नया पुर्तगाली वायसराय बन कर भारत आया। 1530 में
नीनो डी कुन्हा ने कोचीन के स्थान पर गोवा को पुर्तगालीयों का प्रशासनिक केन्द्र
बनाया।
1534 में पुर्तगलियों को नीनो डी कुन्हा के
नेतृत्व मे गुजरात के बहादुर शाह से दीव और बेसिन द्वीप की प्राप्ति हुई।
गार्सिया-डी-नोरन्होः-
सन् 1538 में गार्सिया डी नोरन्हो नया पुर्तगाली वायसराय बनकर भारत आया। नोरन्हो ने
सिलोन (श्रीलंका) के अधिकांश भाग पर कब्जा कर लिया।
अल्फासो-डी-सूजा:-
1542 में अल्फासो डी सूजा नया वायसराय बनकर भारत आया। डी सूजा के साथ जे सुएट
पादरी फ्रांसिस्को सेन्ट जेवियर भारत आये।
पुर्तगालियों
का योगदानः-
- पुर्तगाली पहले है जो भारत में तम्बाकू की खेती की शूरुआत की।
- प्रिन्टिग प्रेस की शूरुआत (पुर्तगालियों ने पहला प्रिन्टिग प्रेस 1556 में गोवा में स्थापित किया।)
- जहाज निर्माण की तकनीक
- गोथिक स्थापत्य
गोथिक
स्थापत्य की विशेषताएं
- गोथिक स्थापत्य पुर्तगालियों द्वारा भारत में लाया जिसमें ऊपरी भाग नुकीला, नुकीले महराव एवं रंगीन कांच का सजावट के लिए प्रयोग होता है।
- अकबर के दरबार में फादर एक्वाविवा और फादर मान्सोरेट आये थे। (अकबर के द्वारा विभिन्न धर्मों पर चर्चा आयोजित कराने के लिए इबादत खाना की स्थापना की गई थी जिसमें विभिन्न धर्मो के धर्माचार्य भाग लेते थे।)
पुर्तगालियों
के पतन का कारण:-
- पुर्तगालियों का धार्मिक दृष्टि से रुढीवादी होना।
- अपेक्षाकृत नौसेना का कमजोर होना।
- पुर्तगालियों का ब्राजील के साथ व्यापारिक संबंधों का विस्तार।
डच (नीदरलैण्ड/हॉलेन्ड)
- भारत आने वाली द्वितीय यूरोपीय कंपनी थी।
- सन् 1596 में कारनेलिस-डि-हस्तमॉन - भारत आने वाला प्रथम डच
- 20 मार्च, 1602 को व्यापारिक कम्पनी डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी - वरिगदे ओस्ट इण्डिशे कम्पने (यूनाईटेट ईस्ट इण्डिया कपंनी) भारत आई।
- डच संसद ने 21 वर्ष का व्यापारिक एकाधिकार दिया
- सन् 1605में प्रथम डच कोटी मसूलीपट्टनम् में स्थापित की।
- डचों द्वारा भारत से नील, शोरा (बारुद) और सूती कपडे का निर्यात किया जाता था।
- डच मुख्य रुप से सूती कपडे के व्यवसाय में रुचि रखते थे।
- सूरत सबसे अधिक लाभ का केन्द्र था।
- बंगाल में प्रथम डच फैक्ट्री 1627 में पीपली में स्थापित किया गया था, इसके बाद बालासोट में फैक्ट्री स्थापित की गई।
- सन् 1653 में चीनसुरा अधिक शक्तिशाली डच व्यापार केन्द्र बन गया था।
- डचों ने चन्द्रगिरी के राजा से समझौता किया और पुलीकट को प्राप्त करने कि बाद उसे अपना केन्दीय स्थल बनाया तथा यही से वे अपने सोने कि सिक्के ढलवाते थे, जिसे पैंगोडा कहा जाता था।
- डच और अंग्रेजों के मध्य 1759 में बेदारा के युद्ध में अंग्रेजों ने डचों को पराजित करने के बाद उन्हे हमेशा के लिए भारत से बाहर कर दिया।
ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी
- भारत में यूरोप से आने वाली कंपनियों में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी सबसे महत्वपूर्ण कम्पनी मानी गई। इसके सफलता के विषय में मुख्यतः तीन विशेषताए महत्वपूर्ण है-
1.स्वाभाविक
नौ सेना
2.परिस्थिती
अनुसार यथेष्ट निर्णय लेने की योग्यता (फ्रांसीसियों की तुलना में)
3.वाणिज्यवाद
की और झुकाव (महारानी ऐलीजावेथ-। की विशेष भूमिका के कारण)
- भारत के विषय में फ्रांस के यात्री बर्नीयर ने कहा था कि भारत देश एक ऐसे कुए के समान था जिसमें संसार भर का सोना और चांदी आकार जमा होता था और उसके बाहर जाने का कोई रास्ता नही था। अर्थात भारत की वस्तुओं की विश्व में बडे पैमाने पर मांग थी। बर्नीयर 1656 से 1668 अर्थात 12 वर्ष तक भारत में रहा उसने अपनी भारत यात्रा का स्मरण ‘ट्रवेल्स इन मुगल इम्पायर’ नामक पुस्तक के रुप में संकलित किया है। बर्नीयर दाराशिकोह का चिकित्सक था। बर्नीयर ने भारत की समकालीन कई घटनाओं का उल्लेख किया है। 1580 में ड्रेक नामक अंग्रेज ने समुद्री मार्ग से पृथ्वी की परिक्रमा पूरी की थी। अंग्रेजी नौसेना की सर्वश्रेष्ठता तब स्थापित हुई जब 1588 में अंग्रजों द्वारा स्पेन के अरमेडा जहाज को ध्वस्त कर दिया गया।
- 1596 में बेन्जामिन उड के अधीन जहाजों का एक बेडा पूर्व की और रवाना हुआ। 1599 में लन्दन का एक व्यापारी जॉन मिडेन हॉल स्थल मार्ग से भारत आया और सात वर्ष तक भारत में रहा।
- 1599 में लन्दन के व्यापारियों के एक समूह के द्वारा ईस्ट ईण्डिया कम्पनी की स्थापना का निर्णय लिया गया। ब्रिटिश महारानी ऐलीजाबेथ -। ने मेयर की अध्यक्षता में पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने की अनुमति प्रदान की। इस तरह 31 दिसम्बर 1600 ईस्वी को महारानी द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी को 15 वर्षो के लिए व्यापारिक एकाधिकार प्रदान किया गया।
- विलियम्स हॉकिंस (1608) ब्रिटेन के महाराजा जेम्स-। का पत्र लेकर भारत आया और सूरत में फैक्ट्री खोलने की अनुमति जहांगीर से मांगी। लेकिन जहांगीर आगरा के पुर्तगालियों एवं सूरत के सौदागरों के विरोध मे अंग्रेजों की मांग को अस्वीकार कर दिया। लेकिन 1612 में हेनरी मेडलटन और कैप्टन बेस्ट ने स्वाली नामक स्थान पर पुर्तगालियों को पराजित किया इस तरह से 1613 में जहांगीर ने सूरत में अंग्रेजों को स्थाई फैक्ट्री खोलनी की अनुमति दे दी। (1611 में अंग्रेजों ने मसूलीपटनम में कोटी स्थापित की थी।)
- 1613 में जेम्स -। का दूत टॉमस रॉ (थॉमस रॉ) भारत आया इसके आने का उद्देश्य भारत के शासक जहांगीर से एक व्यापारिक सन्धि करना था। 1616 में अजमेर में टॉमस रॉ की जहांगीर से भेट हुई। 1619 में टॉमस रॉ के जाने से पहले सूरत के साथ - साथ आगरा, अहमदाबाद, बुरहानपुर, बडौच में ब्रिटिश फैक्ट्रियां स्थापित की गई। ये सभी फैक्ट्रियां सूरत के अधीन थी।
- इग्लैण्ड के राजा चार्ल्स द्वितीय की शादी 1661 में पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन से हुई। बंबई दहेज के रुप में चार्ल्स द्वितीय को प्राप्त हुआ। 1668 में चार्ल्स- द्वितीय ने बंबई को 10 पॉण्ड सालाना भाडे पर ईस्ट ईण्डिया कम्पनी को दे दिया।
- 1639 में फ्रांसिस डे ने चन्द्रगिरी के राजा से मद्रास को पट्टे पर प्राप्त किया और वहा एक किले बन्द फैक्ट्री बनाई जिसका नाम फोर्ट सेण्ट जॉर्ज रखा।
नोट :-बम्बई का वास्तविक संस्थापक आंगियर को मना जाता है। बम्बई की किले बंदी
1720 में चार्ल्स ब्रून ने करवाई थी।
- 1651 में सूजा बंगाल का सूबेदार था। अंग्रेजों ने वहां पर (हुगली में) अपनी पहली व्यापारिक कोठी स्थापित की। 1658 में बंगाल, बिहार, उडिसा को फोर्ट सेण्ट जॉर्ज के अधीन कर दिया गया।
- 1680 में औरंगजेब ने एक फरमान द्वारा अंग्रेजों को चुंगी के दबाव से मुक्त कर दिया, और इनके ऊपर जजिया लगा दिया। अंग्रेजों ने 1686 में हुगली की किलेबन्दी की और उसके आस-पास के क्षेत्रों को लूट लिया जिस कारण औरंगजेब और कम्पनी के मध्य संघर्ष हुआ अंग्रेज पराजित होकर फीबर द्वीप पर शरण लिए। बाद में जॉब चारनाक ने माफी मांग ली इस तरह इनकी वापसी हुई। अंग्रेजों ने पुनः मुगल बन्दरगाओं पर घेरा डाला इस संघर्ष में भी अंग्रजो की हार हुई। जॉन चाइल्ड 1690 में अंगेजों से माफी मांगा था।1690 में ही सूतानाटी में जॉब चारनाक ने एक अंग्रेजी कोठी की स्थापना की जिसकी 1696 में किले बन्दी की गई।
- इस किले बन्दी का अवसर अंग्रेजों को तब प्राप्त हुआ था जब वर्द्धमान के जमीदार शोभा सिंह ने विद्रोह किया। जिस कारण अव्यवस्था फैली इसी परिस्थिती का लाभ अंग्रेजों ने उठाया। 1698 में सूतानाटी, कालीकट, गोविन्दपुर की जमीदारी जॉब चारनाक ने 1200 रु. में प्राप्त की। यही पर 1700 ईस्वी में फोर्ट विलियम नामक किले की स्थापना की गई। (विलियम III के नाम पर इसका निर्माण किया गया।) यह पहला प्रेसीडेंसी घोषित हुआ, यहां का पहला प्रेसीडेन्ट चार्ल्स आयर/चार्ल्स ऐरे बना। 1700 ईस्वी में बंगाल की सभी फैक्ट्रियों को इसके अधीन कर दिया गया।
- 1717 में जब फर्रुखशियर एक गम्भीर बीमारी से रोगग्रस्त हुआ तो कम्पनी की तरफ से एक दूत मण्डल फर्रुखशियर से भेंट किया। इस दूत मण्डल का नेतृत्व जॉन सूरमन ने किया था। इसमें विलियम हैमिल्टन नामक सर्जन डॉक्टर, ख्वाजा सैयद नामक द्विभाषिया एवं स्टीफन नामक सहायक कर्मचारी भी था। विलियम हैमिल्टन ने फर्रुखशियर को रोग से मुक्त कर दिया। अतः उत्तर मुगल शासक फर्रुखशियर ने खुश होकर एक फरमान जारी किया। जिसमें निम्न प्रावधान थे-
3000रु.
वार्षिक के बदले बिना चुंगी दिये बंगाल में व्यापार करने का एकाधिकार दिया गया।
किराये
पर कलकत्ता के आस-पास की जमीन लेने की अनुमति दी गई।
हैदराबाद
में भी चुंगी माफ कर दी गई।
मात्र
मद्रास का किराया देना अनिवार्य किया गया।
अब
सूरत की चुंगी के बदले में 10 हजार रुपये वार्षिक देना था।
मुम्बई
में ढाले गये सिक्के सम्पूर्ण मुगल साम्राज्य में चलाने की अनुमति दी गई।
नोट:- अंग्रेज चांदी तथा ताबें के सिक्के मुम्बई में ढालते थे।
भारत में अंग्रेजों की सफलता का कारणः- भारत में अंग्रेजों की सफलता के निम्नलिखित कारण थे-
1. भारतीय
समाज का स्वरुपः- हिन्दू धार्मिक दृष्टि से विभिन्न सम्प्रदायों में विभाजित था।
भक्ति आंदोलन द्वारा अंधविश्वास कर्मकांड,
जाति विभेद आदि के नकारे जाने के बावजूद एक बडी आबादी इन्ही
में उलझी हूई थी। सामाजिक क्षेत्र में भी कुछ इसी प्रकार की स्थिती थी। हिन्दू
समाज के लोग जाति एवं उपजातियों में विभाजित थे।
मुसलमान भी इस अपवाद से मुक्त नही थे,
वे भी अपना धार्मिक जोश एवं एकता को भूल चुके थे। मुस्लिम, नस्ल
के आधार पर इंरानी,
तुरानी,
अफगान आदि में बट गये थे।
भारतीय सामाजिक व्यवस्था एवं धार्मिक मान्यताएं इस प्रकार की हो गई थी कि
व्यक्ति की वफादारी केवल अपने जाति धर्म एवं गॉव तक सीमित होती जा रही थी। समाज के
लोगों का राजवंशो एवं प्रशासन में होने वाले परिवर्तनों अथवा राजनीतिक उथल-पुथल से
कोई लगाव नही रह गया था।
2.भारतीय
शासकों की शासन पद्धति एवं मुगल दरबार की गुटबंन्दीः- उत्तरवर्ती मुगल शासक पूर्व
की तुलना में अपनी सत्ता का संचालन करने में लगातार कमजोर होते जा रहे थे। केन्द्रीय
सत्ता के बिखरने के परिणाम स्वरूप जो क्षेत्रीय शक्तियां विस्थापित हुई वह भी लंबे
समय तक अंग्रेजी शासन का मुकाबला करने में सक्षम साबित नहीं हुई। विशेषकर हैदर
अलि, टीपू सुल्तान, मराठा पेशवा, महाराज रणजीत सिंह, निजाम उल मुल्क का नाम
उल्लेखनीय है। ये लोग अंग्रेजों से लंबा संघर्ष तो किये लेकिन अंग्रेजों का
पूर्णतः दमन करने मे ये लोग सफल नहीं हो पाये। वही मुगल दरबार की गुटबंदी मुगल
सत्ता की कमजोरी को और उजागर कर दिया। शासकों के नैतिक पतन प्रशासनिक अयोग्यता और
परिस्थितियों को समझने की अक्षमता ने एक व्यापारिक कंपनी को भारत में राजनैतिक
सत्ता स्थापित करने का अवसर दे दिया।
3. यूरोपीय समाज एवं ब्रिटिश नौ सेना:- नौ सेना की सहायता से अंग्रेज विभिन्न स्थानों पर सहायता पहुंचाने और सहायता प्राप्त करने की स्थिती में रहते थे। अंग्रेजो ने जब स्पेन
की अरमेडा जहाज को ध्वस्त किया तो उसके साथ ही उनकी नौ सैनिक सर्वश्रेष्ठता
स्थापित हो गई यही कारण है कि ब्रिटेन विश्व के सबसे शक्तिशाली साम्राज्यवादी देश
बनने में सफल हुआ। वही भारतीय शासकों के पास नौ सेना का अभाव था। फ्रांसीसी नौ
सेना भी अंग्रेजी नौ सेना से दुर्वल साबित हुई।
वही यूरोपीय समाज में वैज्ञानिक दृष्टीकोण के साथ साथ नवीन
अनुसंधानों पर बल दिया जा रहा था। इन नए प्रगतिशील विचारों के कारण अंग्रेज अपने
प्रभाव के विस्तार में निरत्तर सफल होते गये।
4. ब्रिटिश सैन्य संगठन:- साम्राज्य के निर्माण में हमेशा सैन्य शक्ति की श्रेष्ठता
की सबसे महलपूर्ण योगदान रहा है अंग्रेज अपने सैनिको को न केवल उचित शस्त्र
परीक्षण कराते थे,
बल्कि उनमें अनुशासन, आज्ञापालन, खतरे से मुकाबला करने आदि की भावना को भी दृढ
करते थे। इसके अतिरिक्त उसके पास अच्छी तोप एवं बन्दुके थी। वे अपनी रणनीती भी
पहले से तैयार करते थे और अपनी विजय सुनिश्चित करने के लिए कूटनीति का भी सहारा
लेते थे।
सैन्य संगठन में अंग्रेजो को वेलेजली, लॉर्ड हेस्टिंग, डलहौजी जैसे योग्य गवर्नर जनरल के अलावा कई
सैन्य अधिकारियो का भी समर्थन प्राप्त हुआ जैसे एलफिस्टन, आउट्रम
आदि
5. यूरोपीय सामान्तवाद का पतन एवं वाणिज्यवाद की भूमिका:- 16वी सदी में सामंतवाद का जो
स्थापित ढाचा था, 17 ती सदी में यूरोप में कमजोर पडने लगा और
इसका स्थान वाणिज्यवाद ने ले लिया। इससें कृषि की अपेक्षा व्यापार का महत्व अधिक
हो गया। जैसे जैसे व्यापारिक आवश्यताएं बढ़ती गई अंग्रेजों के द्वारा भारत पर
नियंत्रण स्थापित कसे के लिए उनकी सक्रियता बढती गई।
6. आर्थिक परिवर्तन की भूमिका :- ब्रिटेन में जैसे जैसे आर्थिक परिवर्तन होता
गया ब्रिटिस शासन प्रणाली द्वारा भारत के आर्थिक शोषण की प्रक्रिया में परिर्वतन
किया गया अंग्रेज प्रारम्भ में भारत की वस्तुयों को पूरोप में बेचकर मुनाफा
प्राप्त करने पर बल देते थे, लेकिन जैसे जैसे इंग्लैंड में उद्योग का विस्तार किया
जाता रहा अंग्रेजी शासन द्वारा राजनीतिक नियंत्रण के माध्यग से भारत के संसाधनों
को इंग्लैंड के औद्योगिक आवश्यकतओं की पूर्ति के लिए प्रयोग किये किया जाने लगा।
7. यूरोपीय पुनर्जागरण एवं धर्म सुधार की भूमिका :- यूरोप में हुए पुनर्जागरण और धर्म सुधार ने वहाँ
के व्यक्तियों की बौद्धिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक प्रवृतियों
और संगठन परिवर्तन पर बल दिया। जिसके कारण यूरोप आधुनिकता के मार्ग को सहजता
पूर्वक अपना लिया, इसी आधुनिक प्रवृतियों के कारण अंग्रेज कमश: भारत में विजय
प्राप्त करने में सफल होते गये।
प्रश्न :- भारत में अंग्रेजो की सफलता अकस्मात न होकर यूरोप
भारत में सैन्य और प्रशासनिक गिरावट में होनेवाले परिवर्तन और भारत में सैन्य और
प्रशासनिक गिरावट का परिणाम था। स्पष्ट करें। (250 शब्द 15 अंक)
डेनिस कंपनी (डेनमार्क): - डेनिस कम्पनी का आगमन 1616 में हुआ। डेनिस
भारत में राज्य स्थापित करने की महत्वाकांक्षा नही रखते थे। 1620 में ट्रैकूबार में डेनिस कम्पनी का व्यापारिक
केंद्र खोला गया, जो कि तंजौर के शासक से प्राप्त हुआ था। फिर डेनिस ने मसूलीपट्टनम, पोर्टोनोवा (मद्रास) एवं श्रीरामपुर (पश्चिमी बंगाल) में
अपनी फैक्ट्री स्थापित किये। सन् 1845 तक डेनिस लोग अपनी फैक्ट्री अंग्रेजो के हाथों
बेचकर भारत से चले गये।
फ्रांसीसी कंपनी:- 1664 में कोल्बर्ट के प्रयास से फ्रेच
ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना हुई जिसका नाम कम्पनी इण्डेसे ओरियनताल था। यह कंपनी
राज्य या राजा द्वारा स्थापित की गई थी। अर्थात यह निजी शेपर धारकों की कम्पनी नही
थी। भारत में पहली फ्रेन्च फैक्ट्री (कोठी) फ्रेकों कैरो द्वारा सूरत में 1668
में स्थापित की गई। कम्पनी का उद्देश्य पूर्वी गोलार्द्ध में
व्यापार करना था। इस कम्पनी का निर्माण पहले से विद्यमान तीन कम्पनीयों को मिला कर
किया गया था। इसका डाइरेक्टर जरनल डी फाये था। लुई 14 वे का
पत्र लेकर फ्रांसीसी समूह/दल मुगल शासक से भेट किया था। निम्न स्थानो पर फ्रेंच
फैक्टी स्थापित श्री गईथी।
1.
सूरत – 1668
2.
मसूलीपट्टनम – 1669
3.
सेण्टथोमे – 1672
4.
पाण्डिचेरी – 1673
5.
चंद्र नगर – 1690, 1692
6.
मॉरीशस – 1721
7.
माहे – 1725
8.
कराईकल – 1739
कर्नाटक के नबान दोस्त अली की सिफारिश पर मुगल शासक मो० शाह
रंगीला एक फरमान (आदेश) जारी कर फ्रांसीसियों को सोने एवं चादी के सिक्के जारी करने
का अधिकार दे दिया। फ्रांसीसी एवं अग्रेजो के बीच 1760 में वाण्डिवास की लडाई हुई जिसमें अंग्रेजी सेना का नेतृत्वकर्ता आयर कूट ने
फ्रांसीसी सेना को पराजित किया। जिसका नेतृत्व काउण्ट डी लाली ने किया था।
भारत में यूरोपीय कंपनियों का आगमन केवल व्यापार तक सीमित नहीं
रहा, बल्कि इसने भारतीय
समाज, अर्थव्यवस्था और
राजनीति पर दूरगामी प्रभाव डाला। शुरुआती दौर में ये कंपनियाँ केवल व्यापारिक लाभ
के उद्देश्य से आई थीं, लेकिन समय के साथ
उन्होंने भारतीय शासकों की आंतरिक कमजोरियों का लाभ उठाकर सत्ता में हस्तक्षेप
करना शुरू कर दिया। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया
कंपनी ने अपनी सैन्य शक्ति, कूटनीतिक चालों और व्यापारिक एकाधिकार
के माध्यम से भारत पर नियंत्रण स्थापित कर लिया, जो
अंततः ब्रिटिश शासन की नींव बना।
यूरोपीय शक्तियों की इस गतिविधि ने भारत की स्थानीय अर्थव्यवस्था
को कमजोर किया, पारंपरिक व्यापार
प्रणाली को बाधित किया और औपनिवेशिक शोषण को जन्म दिया। हालांकि, इसी संघर्ष ने भारतीय समाज में
राष्ट्रीयता की भावना को भी विकसित किया और आगे चलकर स्वतंत्रता संग्राम का आधार
बना। इस प्रकार, यूरोपीय कंपनियों का
आगमन भारतीय इतिहास का एक निर्णायक मोड़ था,
जिसने
भारत के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक
ताने-बाने को हमेशा के लिए बदल दिया।
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