सौरमण्डल (Solar
System)
परिभाषा - सूर्य के
गुरुत्वाकर्षण बल के अधीन बधें विभिन्न पिण्डो, धूल तथा गैसों के तंत्र को सौर मण्डल कहा जाता है। सौर मण्डल के प्रमुख
सदस्य निम्नलिखित है-
ग्रह (Planet)
Planet शब्द ग्रीक भाषा के Plantai से लिया गया है जिसका अर्थ परिभ्रमक होता है। सामान्यतः ऐसे आकाशीप पिण्ड
जो सूर्य की परिक्रमा करते है तथा जिनकी स्वयं की ताप और प्रकाश ऊर्जा नहीं होती
है तथा इनकी इस ऊर्जा का स्रोत सौर विकिरण होता है, ग्रह कहलाते है।
सन् 2006 में IAU (International Astronomical
Union) का एक सम्मेलन चैक गणराज्य की राजधानी प्राग में आयोजित किया
गया जहां ग्रहों के लिए विशिष्ठ शर्तें निधारित की गई जो नियलिखित है-
(i) पिण्ड का पर्याप्त द्रव्यमान
होना चाहिए जिससे यह गोल अथवा लगभग गोल आकार ग्रहण कर सके।
(ii) यह सूर्य की
परिक्रमा करता हों।
(iii) इसकी परिक्रमण
कक्षा अपने पडोसी पिण्ड की परिक्रमण कक्षा से पूर्णतः पृथक हो।
प्लूटो की
परिक्रमण कक्षा अपने पडोसी ग्रह नेपच्यून (वरुण) से पूर्णतः प्रथक नही है अतः प्लूटो
को ग्रहों की श्रेणी से पृथक कर दिया गया तथा इसे 134340 Pluto के नाम करण के साथ बोने ग्रहो की श्रेणी में रखा गया वर्तमान के क्षुद्र
ग्रहों में Ceres (सेरिस) को भी बौने ग्रहो के अंतर्गत शामिल
किया गया है। सौरमण्डल के पांच बोने ग्रह क्रमशः ERIS (एरिस),
Pluto (प्लूटो) HAUMEA (हयुमिया), Makemake
(मेक मेक) तथा CERES (सेरिस) है। वरुण ग्रह के
बाद के क्षेत्र को कुईपर (Kuiper) बैल्ट कहा जाता है। ऐसे
बोने ग्रह जो कुईपर बैल्ट में स्थित होते है, Plutoid (प्लुटॉइड) कहलाते हैं।
इस प्रकार हमारे सौर
मण्डल में वर्तमान मे 8 ग्रह है जिन्हे
निम्नलिखित दो वर्गों में विभाजित किया गया है-
1.
पार्थिव / आंतरिक ग्रह Terrestrial / Inner Planets:-
बुध, शुक्र, पृथ्वी,
मगल
2.
वृहद/बाह्य ग्रह Jovian/outer
planet :-बृहस्पति, शनि, अरुण, वरुण
पार्थिव ग्रह
आकार में छोटे चट्टानी और उच्च घनत्व वाले है, जबकि वृहद ग्रह गैसीय आवरण वाले अधिक द्रव्यमान एवं कम घनत्व वाले है। इन
ग्रह में इन भिन्नताओं के लिय निम्नलिखित कारण उत्तरदायी माने जाते है-
→ पार्थिव ग्रह सूर्ण
के समीप निर्मित हुए है अतः यहा गैसें संघनित नहीं हो पाई है
→ सूर्य से समीपता के
कारण सौर पवने भी इनकी गैसो के विस्थापन के लिए उत्तरदायी मानी जाती है जबकि वृहद
ग्रहो तक सौर पवने कमजोर हो जाती है और इन ग्रहो की गैसो को विस्थापित नहीं कर पाई
है।
→ प्रार्थित ग्रह
छोटे होने के कारण अपेक्षाकृत कम गुरत्वाकर्षण शक्ति वाले है, अतः ये अपनी गैसो को
सीमित मात्रा में ही रोकने में सक्षम रहे है।
ग्रह के संबंध में प्रमुख बिन्दु:-
बुध (Mercury)
→ सूर्य के सबमे निकट एवं सबसे छोटा ग्रह।
→ बुध पर एक दिन (सौर दिन) लगभग 176
पृथ्वी दिन के बराबर होता है,
जबकि एक वर्ष मात्र 88
पृथ्वी दिन का होता है।
→ कोई वातावरण नहीं होने
के करण अधिक तपान्तर, दिन
में तापमान 430°C तक और रात में -180°C तक गिर जाता है।
→ कोई उपग्रह नहीं
→ प्रमुख मिशन:
- Mariner
10:
पहला अंतरिक्ष यान जिसने 1974–75 में
बुध का फ्लाईबाय किया।
- MESSENGER
(NASA):
2011–2015 तक कक्षा में रहा और विस्तृत अध्ययन किया।
- BepiColombo
(ESA-JAXA संयुक्त मिशन):
2025 में कक्षा में प्रवेश करेगा।
शुक्र (Venus)
→ सर्वाधिक तापमान वाला ग्रह (वायुमण्डल
में CO2 की अधिकता के कारण)
→ पृथ्वी से समीपतम् ग्रह।
→ आकार में पृथ्ती की तरह अतः पृथ्वी की बहन ग्रह।
→ ग्रहों में सर्वाधिक चमकदार (Albedo एल्बेडो ज्यादा)
→ शुक्र का घुर्णन पूर्व से पश्चिम (पृथ्वी के सापेक्ष
सूर्योदय व सूर्यास्त विपरीत दिशा में होता है।)
मंगल (Mars)
→ इसकी सतह पर लोहे के ऑक्साइड की अधिकता है, इस कारण
लाल का ग्रह कहा जाता है।
→ इसका अक्षीय झुकाव पृथ्वी की ही तरह है अतः इसे 'पृत्ती सदृश ग्रह’ कहते है।
→ इसके ध्रुवीय क्षेत्र में बर्फ की संभावना है।
v मंगल ग्रह के दो उपग्रह है- 1.
फोबोस, 2. डेमोस / डीमोस
→ ISRO द्वारा 5 नवंबर 2013 को मंगलयान (MOM) छोडा गया जिसने 24 सितंबर 2014 को मगल की कक्षा में प्रवेश किया,
बृहस्पति Jupiter
→ सबसे बडा ग्रह
→ सर्वाधिक गुरुत्वाकर्षण वाला ग्रह।
→ रेडियो तरंगो के प्राप्त होने के कारण इसे 'तारा सदृश' ग्रह कहते है।
→ इसका उपग्रह गेनामिड सौरमण्डल का सबसे बडा उपग्रह
है।
→इसके उपग्रह यूरोपा की सतह के नीचे बर्फ की उपस्थिति है अतः मानव बस्ती के लिए महत्व।
→ इसके चारो ओर सिलिकेट खनिजों के कणों से निर्मित वलय
प्राप्त होते है।
शनि (Saturn)
→ अंतिम ग्रह जो बिना दूरबीन के देखा जा सकता है
(अर्थात नग्न आखो से)
→ अपने वलयो के साथ यह ‘आकाश
गंगा सदृश’
ग्रह कहलाता है।
→ सर्वाधिक प्राकृतिक उपग्रहो वाला ग्रह।
→ सापेक्षिक घनत्व पानी से कम है। अर्थात सबसे कम
घनत्व वाला ग्रह।
→ सबसे बड़ा प्राकृतिक उपग्रह – टाइटन, टाइटन पर भी
मानव आवास के अनुकूल दशाएं है।
→ टाइटन के अध्ययन के लिए कैसिनी मिशन भेजा गया है।
अरुण (Uranus)
→लेटा हुआ ग्रह
→ यह शुक्र की भाँति पूर्व से पश्चिम दिशा में
परिक्रमा
वरुण (Neptune)
→ सूर्य से सबसे दूर का ग्रह
धूमकेतू (Comets) :-
ये वरुण के
पश्चात् कुईपर बैल्ट में पायें जाने वाले धावित चटटानी धूल एवं गैस निर्मित पर बर्फीले
पिण्ड है। सूर्य की परिक्रमा करते हुए जब ये इसके समीप से गुजरते है तब प्रकाशित
हो उठते है। इनके पदाथों के पिघलने और वाष्पित होने से इन पिण्डो की पूछ का
निर्माण होता है अतः इन्हे पुच्छल तारा भी कहते हैं। सूर्य की सतह से निकले आवेशित
कणों के प्रवाह (सौर पवने) के कारण इनकी पुंछ सूर्य से दूर बनी रहती है।
कुईपर बेल्ट में
वह क्षेत्र जहां ये सर्वाधिक मात्रा में पाये जाते है, उसे Oort Cloud (ऊर्ट मेघ) कहा जाता है। कई बार ये पिण्ड
या मलवे सूर्य द्वारा नष्ट कर दिये जाते है। किन्तु कई धूमकेतु सूर्य की परिक्रमा
करते हुऐ निश्चित समय उपरांत पृथ्वी से देखे जा सकते हैं। हैली नामक धूमकेतु प्रति
76 वर्षों के उपरान्त पृथ्वी से देखा जा सकता है।
उल्का तथा उल्कापिंड (Meteor
and Meteorite)
अंतरिक्ष में क्षुद्र
ग्रह तथा धूमकेतु के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के अन्य चट्टानी और धात्विक टुकडे
पाये जाते है जिन्हे अंतरिक्षीय मलवा कहा जाता है। क्षुद्र ग्रह धूमकेतु तथा अंतरिक्षीय मलबे अंतरिक्ष
में Meteoroid कहलाते है, जब ये पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण
बल के अधीन वायुमण्डल में प्रवेश करते है तब वायु से घर्षण के कारण प्रज्वलित हो उठते
हैं। इन्हे उल्का कहा जाता है। ये टूटते तारे भी कहलाते है। यदि ये आकार में बड़े
होते तब वायू मण्डल में नष्ट नही से पाते है और पृथ्वी की सतह से टकराते है इन्हें
उल्कापिण्ड कहां जाता है। इनसे निर्मित गर्त क्रेटर कहलाता है जिसमें कालान्तर में
झील निर्मित हो सकती है (उदा०
लौनार झील)
उल्कापिण्ड का
शेष बचा भाग टैक्टाइट कहलाता है। इनके अध्ययन से वैज्ञानिक पृथ्वी के आन्तरिक भाग
में पाये जाने वाले खनिजों से सम्बंधित अनुमान लगाने का प्रयास कर रहे है।
पृथ्वी (The
Earth)
→ ज्ञात आकाशीय
पिण्डों में पृथ्वी एक मात्र ग्रह है जहां जीवन के अनुकुल दशाएं पाई जाती है।
→ पृथ्वी सूर्य के
गोल्डीलॉक्स क्षेत्र में स्थित है जो किसी तारे से उस दूरी पर स्थित है जहां न
केवल स्थलीय और वायुमण्डलीय दशात जीवन के अनुकूल होती है वरन् पानी द्रव अवश्या
में पाया जाता है। इसे किसी तारे के संदर्भ में आवसीय क्षेत्र कहते है। सूर्य के
संदर्भ में इस क्षेत्र का निर्माण 15 करोड किमी दूरी पर होता
है।
गोल्डी लॉक्स क्षेत्र
के आधार पर मानव के आवास योग्य अन्य पिंडों की भी खोज की जा रखी है।
→ पृथ्वी के लगभग 70.8%
भाग पर जल और 29.2% भाग पर स्थल पाया जाता है।
जल की अधिकता के कारण यह अतरिक्ष से नीली दिखाई पड़ती है, अतः इसे नीला ग्रह भी
कहा जाहा जाता है।
→ पृथ्वी पूर्ण गोला न
होकर भू आभ (Geoid) है अर्थात यह विषुवतीय क्षेत्र में ऊभार लिऐ हुए है जबकि ध्रुवीय क्षेत्रों में ये चपती है। पृथ्वी की
इस विशेष आकृती का कारण पृथ्वी का विभेदी हुई। घुर्णन है पृत्ती अपने अक्ष के
परिता घूर्णन करती है इसका घूर्णन वेग विषुवत रेखा पर सर्वाधिक (1674.4km/h) जबकि ध्रुवों पर शून्य हो जाता है। अता
विषुवतीय रेखीय क्षेत्र में अप केन्दीप बल के कारण एक अभार की उत्पति होती है तथा
धुवीय क्षेत्रों के पदार्थों का विषुवतीय क्षेत्र की और विस्थापन होता है इससे ध्रुवों
पर पृथ्वी कुछ चपटी हो जाती है।
→ पृथ्वी की औसत
त्रिज्या 6371/km है किन्तु भू-आभ के कारण विषुवत रेखीय
त्रिज्या ध्रुवीय रेखीय त्रिज्या से लगभग 21 किमी अधिक है।
→ पृथ्वी की सतह पर
गुरुत्तीय त्वरण त्रिज्या के वर्ग के व्युक्रमानुपाती होता है।
→ विषुवत रेखीय त्रिज्या
ध्रुवीय त्रिज्या से अधिक होती है अतः विषुवत रेखीय क्षेत्र में g का मान
सबसे कम (9 .7 m/sec) और ध्रुवो पर सर्वाधिक (9.8m/sec)
प्राप्त होता है।
→ पृथ्ठी के
निम्नलिखित हो झुकाव प्राप्त होते हैं।
i. अक्षीय झुकाव जो
वर्तमान में लगभग 23½° का है किन्तु यह यह स्थिर नहीं रहता है यह 22.1°-24.5° के मध्य परिवर्तित होता रहता है। पृथ्वी के इस
झुकाव के कारण ही ऋतुएं होती है।
ii. पृथ्वी का अपने काल्पनिक
परिक्रमण कक्षा तल से झुकाव 66½°
है।
पृथ्वी के झुकाव के
निम्नलिखित कारण है -
i. पृथ्वी से अतीत
में विभिन्न आकार के आकाशीय पिण्ड टकराए है इनके कारण पृथ्वी में झुकाव की दशाएं
निर्मित हुई है।
ii. पृथ्वी के आतरिक
भाग में द्रव्य का वितरण सर्वत्र समान नही है। अतः संतुलन के लिए भी पृथ्वी का
इनुकात महत्वपूर्ण होता है।
iii. पृथ्वी पर अन्य
आकाशीय पिण्ड भी आकर्षण बल आरोपित करते है इसका प्रभाव भी पृथ्वी झुकाव को
निर्धारित करता है।
भू पृष्ठ पर
किसी स्थान की अवस्थिति को बताने के लिए निश्निलिखित दो संकमनाओ का प्रयोग किया
जाता है
① अक्षांश व अक्षांश
रेखाएं (Latitude and Latitude parallel)
② देशान्तर व
याम्योत्तर (Longitude and meridian)
अक्षांश तथा अक्षांश रेखाएं काल्पनिक होते है। इन्हे ग्लोब अथवा मानचित्र पर खीचा
जाता है। पृथ्वी से विषुवत रेखा के उत्तर
और दक्षिण में खीचे गये कोण अक्षांश कहलाते हैं, जबकि समान अक्षाशों को मिलाती हुई
पूर्व पश्चिम दिशा में खीची गई रेखा अक्षांश रेखा कहलाती है।
अक्षांश तथा अक्षांश
रेखाओं की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित है-
1. विषुवत रेखा को
छोड़कर शेष के साथ उत्तर (N) अथवा दक्षिण (S) अवश्य लिखा जाता है।
2. अक्षांश तथा अक्षांश
रेखाओं की संख्या अन्नत हो सकती है किन्तु यदि इन्हें 1-1° के अन्तराल पर खीचा जाता है तब अक्षाश रेखाओं
की कुल सरखा 179 होती है।
3.जब अक्षांश रेखाऐं 1-1° के अन्तराल पर खीची व जाती है तब किन्ही दो
क्रमागत अक्षांश रेखाओं के बीच लगभग 111 किमी की दूरी होती
है।
4. विषुवत रेखा से ध्रुवों
की ओर जाने पर अक्षांश रेखाओं की लम्बाई में कमी आती किन्तु इनके कोणिय मान में वृद्धि
होती है। विषुवत रेखा सर्वाधिक लम्बाई (40075 किमी) वाली अक्षांश रेखा है तथा 60°
अक्षांश रेखा की लम्बाई विषुवत रेखा की आधी होती है।
5. किन्ही दो अक्षांश
रेखाओं के मध्य के क्षेत्र को मेखला या कटिबंध (Belt or
zone) कहा जाता है।
6. वह वृत्त जिसके सहारे पृथ्वी को दो
बराबर भागो में विभाजित किया जा सकता है वृहद वृत्त (Great circle) कहलाता है। अक्षांश रेखाओं में केवल
विषुवत रेखा की वृहद वृत का निर्माण करती है।
7. किसी अंक्षाश का
प्रतिध्रुवस्थ (Antipolar) ज्ञात करने के लिए दिये गए अक्षांश
की दिशा उत्क्रमित कर दी जाती है।
☆ विषुवत रेखा
निम्नलिखित प्रमुख देशो से गुजरती है-
1. दक्षिण अमेरिका के
देश
i.
इक्वेडोर Ecuador
ii.
कोलम्बिया Colombia
iii.
ब्राजील Brazil
2. अफ्रीका के देश
iv.
साओ टोमे एण्ड प्रिंसिप
v.
रिपब्लिक ऑफ कोगों
vi.
गैबोन
vii. डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो
viii. युगांडा
ix.
केन्या
x.
सोमालिया अफ्रीका
3. एशिया के देश
xi.
मालदीव
xii. इण्डोनेशिया द्वीप समूह
4. ओशीनिया
महाद्वीप (आस्ट्रेलिया) के देश
xiii. किरिबाती
☆ कर्क रेखा पर स्थित
देश-
1. उत्तरी अमेरिका के
देश
i.
मेक्सिको उत्तरी
अमेरिका
ii.
बहामास
2. अफ्रीका के देश
iii.
पश्चिमी सहारा
iv.
मोरिटैनिया
v.
माली
vi.
अल्जीरिया
vii.
नाइजर
viii.
लिबिया
ix.
मिश्र
3. एशिया
x.
सउदी अरब
xi.
ओमान
xii.
UAE यूनाइटेड
अरब अमीरात
xiii.
भारत
xiv.
बांग्ला देश
xv.
म्यांमार
xvi.
चीन
xvii.
ताइवान
☆ मकर रेखा पर स्थित
देश-
1. दक्षिण अमेरिका के
देश
i.
चीली
ii.
अर्जेंटीना
iii.
पराग्वे
iv.
ब्राजील
2. अफ्रीका के देश
v.
नामीबिया
vi.
बोत्सवाना
vii. दक्षिण अफ्रीका
viii. मोजाम्बीक
ix.
मेडागास्कर
3. ओशीनिया
महाद्वीप (आस्ट्रेलिया) के देश
x.
आस्ट्रेलिया
☆ आर्कटिक वृत पर
स्थित देश-
i.
USA (अलास्का)
ii.
कनाडा
iii.
ग्रीनलैौण्ड
iv.
आइसलैण्ड
v.
नार्वे
vi.
स्वीडन
vii. फिनलैंड
viii. रुस
देशात्तर तथा याम्योत्तर
(Longitude and Meridian)
ये काल्पनिक होते है
तथा इन्हें ग्लोब या मानचित्र पर खीचा जाता है।
प्रधान याम्योत्तर से
पूर्व और पश्चिम दिशा में खीचे गये कोण
देशान्तर कहलाते है जबकि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों को मिलाती हुई उत्तर दक्षिण
दिशा में खीची गई रेखा, याम्योत्तर कहलाती है यह जिस देशान्तर से गुजारी जाती है
इसका भी मान वही होता है।
इनकी सामान्य
विशेषताएं निम्नलिखित है-
i. 0° तथा 180° को
छोड़कर शेष अन्य के साथ पूर्व (E) पश्चिम (W) अवश्य लिखा जाता है।
ii. देशान्तरो और
याम्योतरो की संख्या अनंत होती है, किन्तु यदि इन्हे 1-1°
के अन्तराल पर खीचा जाये तब इनकी कुल संख्या 360 होती है।
iii. यदि इन्हें 1-1° के अन्तराल पर खीचा जाता है तब विषुवत रेखा पर
किन्ही दो क्रमागत याम्योत्तरों के बीच की दूरी 111.3 किमी
होती है। किन्तु ध्रुवों की और चलने पर इनके बीच की दूरी कम होती जाती है तथा ध्रुवों
पर शून्य हो जाती है।
iv. किन्ही दो याम्योत्तरों
के बीच के क्षेत्र को गोर (Gore) कहा जाता है।
v. किसी देशान्तर या याम्योत्तर
का प्रति-ध्रुवस्त ज्ञात करने के लिए दिये गये याम्योत्तर को 180 से घटा देते है तथा प्राप्त मान में दिशा उत्क्रमित कर देते हैं।
उदा० 30°E का प्रतिध्रुवस्थ याम्योतर
180-30=150°W
vi. प्रत्येक
याम्योत्तर अर्ध वृत्त का निर्माण करता है। जबकि अपने प्रतिध्रुवस्थ के साथ मिलकर
पूर्ण वृत्त बनाता है। अतः प्रत्येक याग्योत्तर के सहारे वृहद वृत की प्राप्ति
संम्भव होती है।
प्रधान याम्योत्तर
0° याम्योत्तर को
प्रधान याम्योत्तर कहते है वर्तमान में वह याम्योत्तर जो लंदन की ग्रीनविच
वैधशाला से गुजरती है उसे प्रधान याम्योत्तर का दर्जा दिया गया की इसका निर्धारण
सन् 1884 में वाशिगटन DC में हुए एक
सम्मेलन में इसे प्रधान याम्योत्तर निर्धारित किया गया।
जब प्रधान
याम्योत्तर पर दोपहर के 12:00 बजे
होते है तब इस समय के आधार पर विश्व के सभी देशों के मानक समय का निर्धारण किया
जाता है अतः प्रधान याम्योत्रर प्रधान मध्यान्ह रेखा तथा अन्तर्राष्ट्रीय मानक समय रेखा भी
कहलाती है।
मानक समय के
निर्धारण के लिए प्रत्येक राष्ट्र को अपने यहां से गुजरने वाली याम्योत्तरों में से
कम से कम 1 याम्योत्तर का चयन करना होता है। चयनित किया गया भाभ्योत्तर 7½ का गुणक होना चाहिए ध्यातव्य है कि सम्पूर्ण पृथ्वी कों
15-15° के अन्तराल पर 24 टाइम जोन (Time
zone) में विभाजित किया गया है।
प्रधान याम्योत्तर
निम्नलिखित देशो से गुजरती है।
1. यूनाइटेट किगंड, फ्रास, स्पेन, अल्जीरिया, माली, बर्किना फासो, घाना और टोगो
☆ यह अन्टार्किटिका
के क्वीन मॉड क्षेत्र से गुजरती
है।
भारत में 82½° पूर्वी याम्योत्तर को मानक समय रेखा चयनित किया
गया है जो उत्तर-प्रदेश, मध्यप्रदेश,छतीशगढ,
उडीशा और आंध्रप्रदेश से गुजरती है।
प्रश्न 1 यदि प्रधान
याम्योतर पर दोपहर के 12:00 बजे है तब 75°W
देशान्तर पर क्या समय होगा।
प्रश्न 2 यदि मानक समय रेखा पर दोपहर को 2 बजे है तब 97½°E पर क्या बज
रहा होगा।
प्रश्न 3 यदि प्रधान याम्योतर पर दोपहर के 12 बजे हो तब किस देशान्तर पर सुबह के 6: बजे होगे।
प्रश्न 4 यदि भारतीय
मानक समय रेखा पर दोपकर के 12 बज
रहे हो तब किस देशान्तर पर सुबह के 6 बज रहे होंगे।
प्रश्न 5 यदि एक पत्र
प्रधान याम्योत्तर से दोपहर 12:00
बजे जाता है, और यदि यह आधे घन्टे उपरान्त्तर
जिस स्थान पर पहुंचता है वह श्याम के 6.30 बज रहे हो तब उस
स्थान का देशान्तर क्या होगा।
☆ यदि पृथ्ती का
घूर्णन उत्क्रमित कर दिया जाये तब निम्नलिखित दशाते होगी-
180°W 0°
180°E |
|
← (+) |
(-)→ |
प्रश्न 6 यदि 180° पूर्वी देशात्तर पर दोपहर के 12:00 बजे हो तब भारतीय मानक समय रेखा पर क्या समय होगा।
प्रश्न 7 यदि भारतीय
मानक समय रेखा पर दोपहर के 12:00 बज
रहे है तब 7½°W देशान्तर पर क्या समय होगा,
अंतर्राष्ट्रीय तिथि
रेखा International Date line
180° याग्योतर को अंतर्राष्ट्रीय तिथि रेखा कहा जाता है यह सीधी रेखा नही है। किसी
देश के विभिन्न भागो को एक साथ बनाये रखने के लिए इसे विभिन स्थानो से मोडा गया ही
यह प्रशान्त महासागर से होकर गुजरती है।
180° |
|
←
(+1)
Monday |
(-1)→ Sunday |
अंतर्राष्ट्रीय नियमों
के अनुसार यदि अंतर्राष्ट्रीय तिथि रेखा को पश्चिम से पूर्व की ओर पार किया जाता
है तब पार करने के उपरांत पश्चिम के दिन में एक दिन घटा दिया जाता है। अतः यहां एक
दिन का लाभ होता है जबकि पूर्व से पश्चिम की ओर पार करने पर पूर्व के दिन में एक
और जोड दिया जाता है अतः इसमें एक दिन की हानी होती है।
पृथ्वी की गतियाँ (Motion
of The Earth)
1. घूर्णन / परिभ्रमण
2. परिक्रमण Rotational) (Revolution) 3. पुरस्सरण 4. गैलेक्टिक
घूर्णन / परिभ्रमण (Rotational)
पृथ्वी की अपने घूर्णन
अक्ष के परितः होने वाली गति,घूर्णन गति कहलाती है। इसके कारण दिन और रात की
परिघटना होती है, तथा पृथ्वी एक घूर्णन 24 घंटे में पूरा करती है। अतः इसे दैनिक
गति भी कहा जाता है। इसके निम्नलिखित प्रभाव होते है-
→पृथ्वी के घूर्णन के
आधार पर ही 24 समय क्षेत्रों (Time zone) का निर्धारिण किया गया है।
→ पृथ्वी पश्चिम से पूर्व
की ओर घूर्णन करती है यही कारण है कि पृथ्वी से सूयौदय पूर्व और सूर्यास्त पश्चिम
में होता हुआ प्रतीत होता है।
→ पृथ्वी के विभेदी
घूर्णन के कारण ही पृथ्वी की भुआभ (Geoid) आकृति प्राप्त
होती है और विषुवत रेखा से ध्रुवों की ओर गुरुत्व के मान में वृद्धि होती है।
→पृथ्वी के घूर्णन के
कारण एक आभासी बल की उत्तति होती
है जिसके कारण स्वतंत्रता पूर्वक पृथ्वी की सतह पर गति करती हुई कोई भी वस्तु
उत्तरी गोलार्द्ध में अपनी मूल दिशा के दाहिने और दक्षिणी गोलार्द्ध में मूल दिशा
के बाएं विक्षेपित हो जाती है। इसका अध्ययन फ्रांसीमी वैज्ञानिक कोरिऑलिस ने किया
था अतःइसे कोरिऑलिस बल कहा जाता है।
→ पृथ्वी के घूर्णन
के कारण ही किसी स्थान पर ज्वार भाटा का समय निर्धारित होता है।
परिक्रमण गति (Revolutionary
motion)
पृथ्वी की सूर्य के
परितः होने वाली गति परिक्रमण गति कहलाती है। पृथ्वी को सूर्य की एक परिक्रमा में 3651/4 दिन लगते है यह अवधि एक वर्ष कहलाती है अतः इसे वार्षिक गति भी कहा जाता
है। इस गति के निम्नलिखित परिणाम होते है।
i. पृथ्वी सूर्य की
परिक्रमा दीर्घवृत्ताकार कक्षा में करती है। अतः इसकी सूर्य से दूरी परिवर्तित होती रहती है।
जिसमें उपसौर (Perihelion) और अपसौर (Aphelion) की परिघटनाएं होती रहती है।
पृथ्ती व सूर्य के बीच
की माध्य दूरी 15 करोड किमी है (जो खगोलिय एकक (AU) कहलाती है।)
उपसौर(Perihelion) 3 January 14 करोड 70 किमी
अपसौर (Aphelion)) 4 July (15 करोड़ 20 लाख किमी)
उपसौर के समय पृथ्बी को
सामान्य से 7% अधिक और अपसौर के समय सामान्य से 7% कम सूर्यातप प्राप्त होता है।
→ पृथ्वी सूर्य की
परिक्रमा नत अक्ष (Axial tilt) और दीर्घवृत्ताकार कक्षा में
करती है जिससे ऋतुएँ तथा विभिन्न ऋतुयों में दिन और रात की अवधि में अंत्तर जैसी परिघटनाएं
होती है।
इस गति के अन्तर्गत
निम्नलिखित दो दशाएं होती है-
→ विषुव (Equinox) इस स्थिति में सूर्य की किरणे विष्णुवत रेखा पर लम्बवत होती है और पूरी
पृथ्वी पर दिन-रात की अवधि बराबर अर्थात 12-12 घन्टे की होती
है। यह दशा 21 मार्च और 23 सितम्बर को प्राप्त होती है जिसे
क्रमशः वसंत विषुव (Spring equinox) तथा शरद विषुव (Autumnal
Equinox) कहते है।
अयनांत (Solstice)
इस स्थिति में सूर्य
कर्क था मकर रेखा पर लम्बवत होता है जिनका विवरण निम्नलिखित है-
① ग्रीष अयनांत (Summer
Solstice): 21 जून-इस तिथि को सूर्य कर्क रेखा
पर लम्बवत होता है अतः उत्तरी गोलार्द्ध में ग्रीष्म ऋतु जबकि सूर्य की किरणे
तिरक्षी पड़ने के कारण दक्षिणी गोलार्द्ध शीत ऋतु होती है।
उत्तरी गोलार्क
मे दिन लम्बे और रातें छोटी होती है तथा आर्कटिक वृत्त से उत्तरी ध्रुव तक सूर्य
का प्रकाश 24 घन्टे प्राप्त होता है इसीलिए नार्वे को मध्य रात्रि के देश सूर्य का
देश कहते है।
② शीत अयनांत (winter
solstice): 22 दिसम्बर- इस तिथि को सूर्य की
किरणे मकर रेखा पर लम्बवत होती है अतः उत्तरी गोलार्द्ध में शीत ऋतु और दक्षिणी गोलार्द्ध
में ग्रीष्म ऋतु होती है। इस समय अंटार्कटिक वृत से दक्षिणी ध्रुव तक 24 घन्टे
सूर्य का प्रकाश प्राप्त होता है जबकि आर्कटिक वृत से उत्तरी ध्रुव तक का क्षेत्र 24
घन्टे की रात्रि का अनुभव करता है।
→ इस गति के कारण ही
धुवों पर 6 महिने का दिन और 6 महीने की
राते होती है।
चन्द्रमा (Moon)
चन्दमा पृथ्वी
का एक मात्र प्राकृतिक उपग्रह है। प्राकृतिक उपग्रह ऐसे आकशीय पिण्ड होते है जो
किसी ग्रह, बौने ग्रह तथा क्षुद्र ग्रह की परिक्रमा करते है तथा
इनकी प्रकाश और ताप ऊजी का स्रोत सूर्य (तारा) है।
चंद्रमा की
उत्पति के सदर्भ में निम्न लिखित मत प्रतिपादित किए जाते हैं-
1. डार्बिन के अनुसार अपनी उत्पति के
समय पृथ्वी की घूर्णन गति वर्तमान की तुलना कहीं अधिक थी, तीव्र घूर्णन के कारण डंब्बल
के आकार में परिवर्तित हुए और उसका एक भाग पृथक होकर इसकी (पृथ्वी की) परिक्रमा
करने लगा।
2. एक अन्य मत के
अनुसार अतीत में पृथ्ती के समीप से एक अन्य आकशीय पिण्ड गुजरा जो पृथ्ती के गुरत्वाकर्षण
बल के अधीन पृथ्वी की परिक्रमा करने लगा।
3. चन्दना की उत्पति
के सम्बंध में सर्वाधिक मान्य सिद्धान्त Big Splat (बिग
स्प्लेट) या Giant Impact Hypothesis सिद्धात है जिसके
अन्तर्गत यह माना जाता है कि लगभग 4.6 अरब वर्ष पहले पृथ्ती
की उत्तति हुई तथा पृथ्ती की प्रारंभिक अवस्था मे ही इससे मंगल ग्रह के आकार के
बराबर एक अन्य पिंड 'थिया' इससे टकराया
तथा थिया और पृथ्वी के टुकडो से अंततः 4.44 अरब वर्ष पहले चंद्रमा अस्तित्व में
आया।
चन्द्रमा की सामान्य
विशेषता निम्नलिखित है-
1. चन्द्रमा पृथ्वी
की दीर्घवृत्ताकार कक्षा में परिक्रमा करता है। इसकी पृथ्वी से औसत दूरी 384400
किमी है।
उपभू (Perigee) पृथ्ती से समीपतम 362600 KM
अपभू (Apogee) पृथ्वी से
सर्वाधिक दूर
405,6100 KM
चन्द्रमा पर विभिन्न
पिण्डो के टकराने से और अतीत में ज्वालामुखी क्रिया के कारण विभिन्न गर्त और
विस्तृत क्षेत्र पाये जाते है, जो पृथ्वी से चन्द्रमा पर धब्बो के रूप में दिखाई
पडते है।
चन्द्रमा की सतह पर g का मान पृथ्वी का 1/6 गुना होता है अतः चन्द्रमा पर
पलायन वेग मात्र 2.38 KM/Sec है। यही कारण है कि चन्द्रमा का
वायूमण्डल नहीं है।
→ चन्द्रमा की अपने
अक्ष के परितः एक घूर्णन पूरा करने की अवधि 27.3 दिन है, और इतने ही समय में वह
पृथ्वी की एक परिक्रमा भी पूरी करता है। यही कारण चन्द्रमा कि पृथ्वी से चंद्रमा का
सदैव अभिन्न फलक ही दिखाई पड़ता है। पृथ्वी से चन्दमा का अधिकतम 59% भाग की दिखाई
पड़ता है।
→ चन्द्रमा का स्वयं
का प्रकाश नहीं होता है उसके जितने भाग पर सूर्य का पडने वाला प्रकाश परावर्तित
होकर पृथ्वी तक पहुंचता है वही भाग पृथ्वी से दिखाई पड़ता है इसी कारण चन्द्रमा की
कलाएं होती हैं। इसमे निम्नलिकित दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थितियां दोती है युति- वियुती
⇒ युति- वियुति (Syzygy)
इस स्थिति में सूर्य चन्दमा तथा पृथ्वी सीधी रेखा में होते है इसकी निम्नलिखित दो
उपस्थितियां होती है
a.
युति (Conjunction) इस समय चन्द्रमा
का जो भाग पृथ्वी की और होता है वहा सूर्य का प्रकाश न पहुंच पाने के कारण रात्रि में आकाश में चन्दमा दिखाई नहीं पडता यह अमावस्या (Newman) कि तिथी कहलाती है इस समय पृथ्वी और सूर्य के
मध्य चन्द्रमा छोता है।
b. वियुति (opposition)-इस समय
सूर्य तथा चन्द्रमा के मध्य पृथ्वी होती है चन्द्रमा की परिक्रमण कक्षा पृथ्वी की
परिक्रमण कक्षा से 5° पर झुकी हुई है अतः इस झुकाव के कारण बीच
में पृथ्वी होने के बावजूद सूर्य का प्रकाश चन्द्रमा के उस भाग पर पहुंच जाता है
जो पृथ्वी के सामने होता है इस पूर्ण चंद्र / पूर्णिमा की तिथि कहते है।
यदि पूर्णिमा के समय
उपभू की दशा होती है तब चन्द्रमा सामान्य से बडा दिखाई पड़ता मैं इसे सूपर मून (super moon) कहते है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है अतः किन्ही दो क्रमागत पूर्णिमाओ
के मध्य 29.5 दिन का अन्तराल होता है। पश्चिमी देशों में एक वर्ष को तीन-तीन महिने के 4 मौसमी कलैण्डरों विभाजित किया जाता है। सामान्यतः हर मौसमी कलेण्डर मे तीन
पूर्णिमाएं होती हैं किन्तु लगभग 2.5 वर्षों के अत्तराल में
जब किसी मौसमी कलेण्डर में चार पूर्णिमाएं हो जाती है तब तीसरी पूर्णिमा के चांद
को ब्लू मूल (Blue moon) कहा जाता है। लोकप्रिय अवधारणा में
यदि किसी महीने में दो पूर्णिमा होती है तब दूसरी पूर्णिमा के चांद ब्लू मूल कहा
जाता है।
सूर्य ग्रहण Solar
Eclipse
जब अमावस्या की तिथि में
विशेष दशाओं के अधीन सूर्य चन्दुमा तथा पृथ्वी एक सीधी रेखा में आ जाते है तथा
पृथ्वी के क्षेत्र विशेष से सूर्य के बजाय चन्द्रमा की छाया दिखाई पड़ती है तब यह
स्थिति सूर्य ग्रहण कहलाती है।
पृथ्वी का वह भाग जहां
चन्द्रमा की छाया कें कारण सर्वाधिक गहरे रंग का भाग निर्मित होता है, उसे umbra कहा जाता है उसकी तुलना में कम गहरे रंग का भाग Penumbra
कहलाता है। अम्ब्रा क्षेत्र से पूर्ण सूर्य ग्रहण / खग्रास सूर्य
ग्रहण (Total Solar Eclipse) जबकि प्रेनम्ब्रा वाले भाग से आंशिक
सूर्य ग्रहण की दशाएँ प्राप्त होती है।
पूर्ण सूर्य ग्रहण के
समय की परिधिय भाग में ही हीरक वलय की परिघटना होती है।
सामान्यतः एक
वर्ष में दो से पांच बार सूर्य ग्रहण की स्थितियां निर्मित हो सकती है। पूर्ण
सूर्य ग्रहण कुछ सैकण्ड से लेकर 7:30 मिनट
तक रह सकता है।
चन्द्र ग्रहण Lunar
Eclipse-
जब सूर्य तथा चन्दना के मध्य पृथ्वी आ जाती है और यदि तीनों एक सीधी रेखा
में होते हैं तब चन्द्रमा पर सूर्य का प्रकाश पहुंचने के बजाय पृथ्वी की छायां
पड़ती है। यह चन्द्रग्रहण की दशा होती है।
यदि चन्द्रमा अम्ब्रा
क्षेत्र में होता है तब यह पूर्ण चन्द्रग्रहण की दशा होती है, सूर्य से आने वाले
प्रकाश के अन्य रंग पृथ्वी के वायूमण्डल द्वारा प्रकीर्णित कर दिये जाते है किन्तु
लाल रंग चन्द्रमा की सतह तक पहुंच जाता है अतः चंद्रमा गहरे लाल रंग का दिखाई पडता है जिसे Blood moon (रक्त चन्द्र) कहा जाता है।
यदि चन्द्रमा का
कुछ भाग अम्ब्रा और शेष प्रेनम्ब्रा में होता है तब यह आंशिक चन्द्र ग्रहण होता
है। किन्तु जब चंद्रमा पेनम्ब्रा क्षेत्र
में होता है और इसका प्रकाश अत्यधिक मंद हो जाता है तब इसे Penumbral (पेनम्ब्रल ) चन्द्र ग्रहण कहते है।
किसी वर्ष
सामान्यतः हो चन्द्र ग्रहण की सम्भावना होती है किन्तु किसी-किसी वर्ष में कोई
चन्द्र ग्रहण प्राप्त नही होते और किसी वर्ष में 3 चन्द्र ग्रहण हो सकते हैं।
सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण सदैव क्रमशः अमावस्या और पूर्णिमा को ही होते हैं। किन्तु चन्द्रमा की कक्षा के झुकाव के कारण प्रत्येक अमावस्या व पूर्णिमा को इनका होना आवश्यक नहीं होता है।
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