पृथ्वी की आंतरिक संरचना (Interior
of the Earth)
पृथ्वी की आंतरिक संरचना से
तातर्य भू-गर्भ में पाई जाने वाली रासायिक और भौतिक दशाओ के अध्ययन से है। पृथ्वी की
आतरिक संरचना का अध्ययन निम्नलिखित कारणों
से महत्वपूर्ण माना जाता है
① पृथ्वी तथा सौर मण्डल के अन्य
ग्रहों की उत्पति तथा विकास की प्रक्रिया को समझना।
② भू-पृष्ठ पर पाई जाने वाली
भू-आकृतियों जैसे पर्वत पठार आदि के निर्माण से सम्बधित प्रक्रमों का अध्ययन करना
एवं इन भू आकृतियो के विकास क्रम को समझना।
③ भू चुम्बकत्व पृथ्वी की
महत्वपूर्ण विशेषता है जिसके कारण पृथ्वी कॉस्मिक विकिरण, सौर
ज्वालओं आदि से सुरक्षित रहती है, भू चुम्बकत्व की उपति भूगर्भ से सम्बंधित है
जिसके लिए पृथ्वी की आतरिक संरचना का ज्ञान आवश्यक है।
④ ज्वालामुखी तथा भूकम्प जैसी
गतिविधियो का अध्ययन कर उनकी भविष्यवाणी करने के प्रयास करना।
⑤ पृथ्वी के स्थल मण्डल वायुमण्डल
तथा जल मण्डल की उत्पति की प्रक्रिया को समझना।
⑥ भूगर्भ में खनिजों के वितरण के
प्रतिरूप को समझने का प्रयास करना।
⑦भूगर्भ की चट्टानों में प्राप्त
जीवाश्मों के अध्ययन द्वारा पृथ्वी पर जीवों की उत्पति की प्रक्रिया को समझना।
भूगोल पृथ्वी का मानव के
आवास के रुप में अध्ययन करता है अतः पृथ्वी की आंतरिक संरचना की समझ मानव और
पृथ्वी के सम्बंधों को निरन्तरता प्रदान कर सकती है जिससे मानव सतत विकास के अधीन
भू-पृष्ठ पर अनंत काल तक निवास कर सकता है
पृथ्वी की आतरिक सरचना के अध्ययन के
स्रोत –
1.
प्रत्यक्ष
(Direct)- प्रवेधन (Drilling), ज्वालामुखी (Volcano)
2.
अप्रत्यक्ष
( Indirect)- ताप, दाब, घनत्व संबधी अनुमान, गुरुत्व, उल्कापिंड,
भूकंप विज्ञान
प्रत्यक्ष स्रोत-
इसके अन्तर्गत प्रवेधन तथा ज्वालामुखी स्रोत्रो को शामिल किया जाता है। विभिन्न
खनिजों की प्राप्ति के लिए खोदी गई खानो द्वारा पृथ्वी की आंतरिक सरचना के संदर्भ
में विशिष्ट सूचना प्राप्त होती है किन्तु विश्व की सबसे गहरी खाने दक्षिण अफ्रिका
में सोने की खाने है जो मात्र 3-4 KM गहरी है।
आतरिक संरचना के अध्ययन के लिए आर्कटिक महासागर में रूस के कोला प्रायद्वीप में
लगभग 12 किमी तक प्रर्वधन किया गया है।. इससे गहराई मे वृद्धि
के साथ तापमान, चट्टानों
के घनत्व में परिवर्तन आदि सम्बंधी सूचनाएं प्राप्त हुई।
भू-पृष्ठ पर निर्मित वह
छिद्र या दरार जिससे भूगर्भ का तप्त मैग्मा भू-पृष्ठ पर लावा के रूप में उद्गारित
होता है,
ज्वालामुखी कहलाता है। यह लावा वैज्ञानिको के अध्ययन के लिए उपलब्ध
होता है इसके द्वारा वैज्ञानिक भूगर्भ की तापीय दशाओं के बारे में महत्वपूर्ण
सूचनाऐ प्राप्त करते हैं तथा आंतरिक भाग में पाये जाने वाले खनिजों का भी पता चलता
है।
महत्वपूर्ण सूचनाये प्रदान करने के बावजूद प्रत्यक्ष स्रोतों की
अपनी सीमाएं है पृथ्वी की माध्य त्रिज्या 6371 किमी है,
जबकि अधिकतम प्रवेधन मात्र 12 किमी का है।
इसके अतिरिक्त ज्वालामुखी से प्राप्त पदार्थ कितनी गहराई से आ रहे है इसे निश्चित
करना कठिन है यहपि वैज्ञानिक महासागरिय क्षेत्रों में प्रवेधन सम्बधी योजनाओं पर कार्य
कर रहे है तथा यूरोपीप एजेन्सी के स्वार्म मिशन द्वारा भी पृथ्वी के आंतरिक भाग के
बारे में जानकारियां जुटाई जा रही हैं।
अप्रत्यक्ष स्रोत (Indiret
Source)
प्रत्यक्ष स्रोतो की सीमाओं
के कारण आंतरिक सरचना के ज्ञान के लिए अप्रत्यक्ष स्रोतों पर निर्भर होना पड़ता है
जो निम्नलिखित हैं
1. ताप, दाब व घनब सम्बंधी साक्ष्य/ अनुमान- वैज्ञानिकों
के अनुसार पृथ्वी की सतह से केंद्र की ओर गहराई में वृद्धि के साथ 10/32
मीटर की दर से तापमान में वृद्धि होती है इसे भूतापीय प्रवणता कहते
है। किन्तु 50 किमी के उपरान्त भू तापीय प्रवणता मे कमी आती
है यद्धपि तापमान में वृद्धि जारी रहती है पृथ्वी के केन्द्र पर लगभग 6000°C
अनुमानित किया गया है। तापमान में वृद्धि के निम्नलिखित कारण माने
जाते हैं –
a.
पृथ्वी की अवशिष्ट ऊष्मा
b.
रेडियो एक्टिव पदाथों की
उपस्थिती
c.
दबाब सम्बधी प्रभाव
तापमान में वृद्धि के आधार
पर कुछ विद्वानों ने यह माना है कि पृथ्वी आंतरिक भाग में द्रव अवस्था में होनी
चाहिए,
कित्तु भू-गर्भ में चटानो या खनिजों की अवस्था का निर्धारण तापमान
और दबाव दोनों की तुलना द्वारा किया जाता है जिसकी निम्न- लिखित तीन सम्भावनाएं
है-
(1)
यदि तापमान
> दाब = द्रव अवस्था
(2)
यदि तापमान - दाब = प्लास्टिक अवस्था
(3)
यदि तापमान
< दाब = ठोस अवस्था
भूगर्भ मे गहराई में वृद्धि के साथ
चट्टानों के घनत्व में भी वृद्धि होती है जिसके निम्नलिखित दो कारण है।-
① चट्टानो द्वारा आरोपित दबाव ② विभेदन
की घटना
दबाव में वृद्धि से चटानों
के घनत्व में वृद्धि होती है किन्तु दबाव बढ़ा कर चट्टानों का घनत्व एक सीमा तक ही
बढ़ाया जा सकता है। इसके उपरान्त दबाव में वृद्धि से चट्टानें टूट जाती हैं। अतः
भूगर्भ में घनत्व एक मात्र कारण नही हो सकता है। वैज्ञानिको ने विभेदन की परिघटना
को इसका महत्वपूर्ण कारण माना है उनके अनुसार पृथ्वी के निर्माण के समय पृथ्वी द्रव
अवस्था में थी तथा इसके घूर्णन के कारण अधिक घनत्व वाले पदार्थ पृथ्वी के केन्द्र
की ओर जबकि अपेक्षाकृत कम घनत्व वाले पदार्थ परिधि की और एकत्रित हुए जिससे न केवल
गहराई में वृद्धि होने पर चट्टानो के घनत्व में वृद्धि प्राप्त होती है बल्कि
पृथ्ती को परतदार संरचना भी प्राप्त हुई। इसी आधार पर वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के
केंद्र मे निकिल और आयरन की उपस्थिति का अनुमान लगाया है।
पृथ्वी की आंतरिक संरचना में पाई
जाने वाली परते- भू-कम्पीय तरणों द्वारा साक्ष्यों
के आधार पर पृथ्वी की आतरिक सरचना को विभिन परतों में विभाजित किया गया है। ये निम्नलिखित
दो प्रकार की मानी जाती है- ① रासायनिक या संघटनात्मक
परतें ② यांत्रिक/ भौतिक परतें
रासायनिक परतें-
जब पृथ्वी की आंतरिक संरचना
का अध्ययन परतो के रासायनिक संघटन के आधार पर करते है तब इन्हे रासायनिक या संघटनात्मक
परते कहते है जो निम्नलिखित है-
(1) भू
पृष्ठ / भूपर्पटी (Crust)
→ यह पृथ्थी की सबसे ऊपरी
रासायनिक परत है जिसकी औसत मोटाई 30 किमी मानी जाती है
किन्तु महासागरों पर इसकी मोटाई तीन किमी से 10 किमी तक होती
है। जबकी पर्वतों के नीचे इसकी मोटाई 70 किसी तक सम्भव है।
→ भू -पृष्ठ को कोरनॉड असबद्धता
द्वारा ऊपरी और निचली भू पृष्ठ में विभाजित किया जाता है।
ध्यातव्य है कि कोरनॉड असबद्धता
सागर की तली के नीचे प्राप्त नही होती
→ प्रारम्भ में सम्पूर्ण भू पृष्ठ
को Sial (सियाल) माना जाता था किन्तु अब ऊपरी भू- पृष्ठको
सियाल तथा निचली भू पृष्ठ Sima (सीमा)
के अन्तर्गत रखा जाता है ।इस प्रकार महाद्वीप की सतह Sial अर्थात ग्रेनाइट
जैसी हल्की चट्टानों से निर्मित है जिनका घनत्व लगभग दो 2.7 ग्राम/घनसेमी
है जबकि महासागर की तली sima (सीमा) अर्थात बेसाल्ट जैसी
अधिक घनत्व वाली चट्टानो से निर्मित है जिसका घनत्व लगभग 3.0
ग्राम/घनसेमी है। इस आधार पर भू-पृष्ठ को महाद्वीपीय और महासागरीय भू पृष्ठ मे विभाजित
किया जाता है।
→ सम्पूर्ण पृष्ठी के आयतन का
लगभग 1% और सम्पूर्ण द्रव्यमान का 0.5% भूपृष्ठ में पाया जाता है।
प्रावार
(Mantle)-
→इसका विस्तार मोहो असबंद्धता से 2900
किमी तक की गहराई तक है। इसे रिपेटी असबंद्धता द्वारा ऊपरी और निचली
मेंटल में विभाजित किया जाता है।
→ प्रावार का घनत्व 5.5 ग्राम/घनसेमी अनुमानित किया गया है यहां तापमान बढकर लगभग 4000°C तक पहुंच जाता है
→ मेन्टल का आयतन पृथ्वी के कुल
आयतन का लगभग 84% और द्रव्यमान 68% माना
जाता है।
→ मेन्टल में पेरिडोटाइट चट्टानो
की प्रधानता है तथा यह Sima परत भी कहलाती है।
क्रोड (Core)
इसका विस्तार गुटेन वर्ग विशर्ट
असबंद्धता से पृथ्वी के केन्द्र तक है इसे लेह मेन असबद्धता द्वारा बाह्य और
आंतरिक क्रोड में विभाजित किया जाता है।
→ वैज्ञानिको के अनुसार बाह्य
क्रोड द्रव जबकि आंतरिक क्रोड ठोस अवस्था में पाया जाता है।
→ पृथ्वी के केन्द्र पर तापमान
लगभग 6000°C अनुमानित किया गया है तथा यहां घनत्व बढकर 13
ग्राम/घन सेमी हो जाता है।
→निकिल और लोहे की अधिकता के कारण
इसे NiFe (निफे) परत भी कहते है।
→कोर का आयतन पृथ्वी के आयतन का 15%
और द्रव्यमान लगभग 31.5% होता है।
1.
स्थलमण्डल (Lithosphere)
⇒यह औसतन 100 km मोटी परत मानी मानी जाती है जो कठोर दृढ (Hard Rigid)और भंगुर (Brittle) चट्टानों से निर्मित है।
⇒भूगर्भ से मुक्त होनी वाली ऊष्मा
के कारण भ्रंशों के सहारे अनियमित आकार के खण्डों में विभाजित है जिन्हें स्थमडलीय
प्लेट कहा जाता है।
⇒ इनकी मोटाई सर्वत्र समान नहीं
होती है। महासागरों में ये पांच किमी से लेकर 100 किमी जबकि
महाद्वीपीय भाग में ले लगभग 200 किमी मोटी हो सकती है।
2.
दुर्बलतामण्डल (Asthenosphere)
⇒100 किमी से 200 किमी गहराई तक का भाग दुर्बलतामण्डल कहलाता है। यहां रेडियो एक्टिव पदाथौ
से मुक्त ऊष्मा के कारण चटानो के कुछ खनिज पिघल जाते है अतः यहां चट्टानें
प्लास्टिक अवस्था में पाई जाती है।
⇒इस क्षेत्र में भूकम्पीय तरगें (P-S)
कमजोर पड जाती है, अतः यह दुर्बलता मण्डल
कहलाता है इसे निम्न वेग मण्डल (Low Velocity zone) भी कहा
जाता है।
⇒यहां चट्टानों के पिघलने से प्राप्त मैग्मा जालामुखी द्वारा लावा के रूप
में भूपृष्ठ पर आता है। अतः इसे मैग्मा प्रकोष्ठ (Magma chamber) भी कहा जाता है। यह स्थल मण्डलीय प्लेटों की गति के लिए आवश्यक सतह उपलब्ध
कराता है। विद्वानों के अनुसार स्थल मंण्डल दुर्बलता मण्डल पर क्षैतिज रूप में
गतिशील है।
3.
मध्यमण्डल (Mesosphere)
इस परत का विस्तार 200
किमी से 2900 किमी की गहराई तक है, यहां तापमान वृद्धि की तुलना दाब में अधिक वृद्धि होती है अतः यहा चटाने
ठोस अवस्था में पाई जाती है।
4.
बाह्य कोर (Outer
Core)
इसका विस्तार 2900
किमी से 5150 किमी की गहराई तक होता है। यहा
रेडियो एक्टिव पदार्थों से मुक्त उर्जा के संचयन के कारण तापमान, दाब की तुलना अधिक हो जाता को अतः यहा लोहे तथा निकिल का तप्त चालक द्रवं (Hot
conductor Fluid) पाया जाता है। इस चालक द्रव में होने वाली गति ही पृथ्वी
के चुम्बकीय क्षेत्र की उत्तति के लिए उत्तरदायी है।
5.
आतरिक क्रोड (Inner
Core)
इस परत में पुनः दबाव तापमान
की तुलना में अधिक प्रभावी हो जाता है अतः वैज्ञानिको ने इस परत को गैस अवस्था में
माना है।
गुरुत्व संम्बंधी साक्ष्य
पृथ्वी की सतह पर विषुवत
रेखा से ध्रुव की और जाने पर गुरुत्व के मान में वृद्धि होती होती है। पृथ्वी की
सतह पर विभिन्न अक्षाशों पर गुरुत्व मे पाई जाने वाली यह कि भिन्नता गुरुत्व
विसंगति कहलाती है। इसका मुख्य कारण विषुवत रेखीय त्रिज्या का ध्रुवीय त्रिज्या की
तुलना में 21
km अधिक अधिक होता के गुरुत्व विसंगति से पता चलता है कि पृथ्ती के
आंतरिक भाग में पदाथों का वितरण समान नहीं है।
भू-चुम्बकत्व संम्बधी साक्ष्य
पृथ्वी का अपना चुम्बकीय
क्षेत्र है जो पृथ्ठी के आंतरिक भाग से उत्पन्न होता है। यह तभी संभव है जबकि पृथ्वी
के अन्दर आयरन और निकिल जैसे पदार्थ पाये जाते है जो चुम्बकीष गुणो को धारण करने
में सक्षम हैं। अतः पृथ्वी के आतरिक भाग में आयरन और निकिल की उपस्थिती है तथा
उच्च घनत्व के कारण ये पृथ्वी के केन्द्र में सर्वाधिक मात्रा में पाये जाने
चाहिए।
उल्कापिण्ड सम्बधी साक्ष्य- वे अंतरिक्षीय मलबे, क्षुद्रग्रह तथा धूमकेतु जो
पृथ्वी की सतह से टकराते है उल्कापिण्ड कहलाते है। इनका निर्माण भी प्रायः उन्ही पदार्थों
से हुआ है जिनसे पृथ्वी तथा अन्य ग्रह निर्मित हुए है इनके अध्ययन से पृथ्वी कें
आतरिक भाग में पाये जाने वाले पदार्थों, का अनुमान लगाया जा
सकता है। अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि इनमें लोहे तथा निकिल की उपस्थिति होती है। अतः यह अनुमान कि पृथ्वी के केंद्र में आयरन और
निकिल की अधिकता है उपयुक्त प्रतीत होता है।
भूकम्प विज्ञान संबंधित साक्ष्य-
पृथ्वी की सतह पर उत्पन्न होने वाले असामान्य और आकस्मिक कम्पन भूकम्प कहलाते है।
पृथ्वी की उपरी परतों की चट्टानें निचली परतो पर प्रतिबल आरोपित करती है जब तक यह
प्रतिबल इन चटानों के सहने की क्षमता से कम या बराबर होता है, तब तक चट्टाने टूटती
नही है तथा उन पर आरोपित प्रतिबल ऊर्जा के रूप में संचित होता रहता है किन्तु जब
आरोपित प्रतिबल चट्टानो की प्रतिबल सहने की सीमा से अधिक हो जाता है तब चटाने
भ्रशं (fault)
के सहारे टूट जाती है, तथा उनमें संचित
ऊर्जा मुक्त हो पाती है यह ऊर्जा तरंगो के माध्यमो से संचरित होती है और भूपृष्ठ
से टकराकर भूकम्प उत्पन्न करती है।

भूगर्भ में वह स्थान जहां सबसे पहले
भूकंपीय ऊर्जा मुक्त होती है भूकम्प मूल या अपकेंद्र कहलाता है। भूकम्प के दौरान
उत्पन्न तरंगें भूकम्पीय तरंगे (Seismic waves) कहलाती
है पृथ्वी की सतह पर वह स्थान जहा सबसे पहले भूकम्प अनुभव किए जाते हैं अधिकेन्द्र
कहलाता है।
भूकम्प
के दौरान पृथ्वी की सतह पर विश्व के विभिन्न स्थानों में रखे गये 'सिस्मोग्राफ' नामक यंत्र के द्वारा भूकम्प के दौरान
प्राप्त होने वाली तरंगों के प्रतिरूप को प्राप्त कर उनका अध्ययन किया गया का है।
जिनसे पृथ्वी की आंतरिक संरचना के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त हुई है।
भूकम्प के दौरान निम्न लिखित दो
प्रकार की तरहगे उत्पन्न होती है
① भूगर्भिक या काया तरंगे (Body
Waves)
① धरातलीय या दीर्घ तरणें (Surface
or long waves)
भूगर्भिक या काया तरंगें
ये तरंगे भूकम्प के दौरान
भूकम्प मूल,
से उत्पन्न होती है तथा पृथ्वी के आंतरिक भाग में सभी सम्भव दिशाओं
में गति करती हुई भू पृष्ठ तक पहुंचती है। पृथ्वी के आंतरिक भाग से आने के कारण
इन्हें भूगर्भिक या काया तरणें कहा जाता है। पृथ्वी की आतरिक संरचना के ज्ञान के लिए
इन्ही तरंगों का महत्व है। ये तरंगें निम्नलिखित दो प्रकार की होती है।
① प्राथमिक भूकंपीय तरंगे ②
द्वितीयक भूकंपीय तरंगें
प्राथमिक भूकंपीय तरंगे (Primary
Seismic Waves)
→भूकम्प के दौरान Seismograph
पर ये तरंगे सबसे पहले रिकॉर्ड होती है अतः प्राथमिक भूकंपीय तरंगे
कहलाती है।
→ ये तरंगें माध्यम के पदार्थ के
कम्पन के अनुदिश गमन करती है, अतः ये अनुदैर्ध्य तरंगें है।
→ इनके कारण माध्यम के पदार्थ में
प्रसार तथा संकुचन होता है अतः इन्हे Pull & Push तरंगें
कहा जाता है।
→ ये माध्यम के घनत्व में
परिवर्तन करती है।
→ ये ठोस द्रव, गैस तीनो, माध्यम में गति कर सकती है। इनका वेग
माध्यम की दृढता के समानुपाती होता है।
P तरंगो का
वेग
माध्यम की दृढता
Pतरंगो का वेग
माध्यम का घनत्व
→ इन तरंगों का औसत वेग 8
km/sec से 14 Km/sec का होता है ये भूकंपीय
तरंगों में सबसे तेज गति से चलती है।
→ भूकपीय तरंगों में ये सबसे कम
विनाशक होती है।
द्वितीपक भूकंपीय तरंगें (Secondary Seismic Waves)-
→ ये तरगे Seismograph पर प्राथमिक तरंगों के उपरांत प्राप्त होती है अतः द्वितीपक तरंगे कहलाती
है।
→यह तरंग श्रृंग और गर्त बनाते
हुए चलती है। इसमें माध्यम के कण तरंग के
चलने की दिशा के लम्बबत कम्पन्न करते है अतः यह अनुप्रस्थ तरंग है।
→ ये तरंगे केवल ठोस व अर्ध ठोस
माध्यम में चलती है।
→ इनका वेग माध्यम की दृढता के
अनुक्रमनुपाती होता है अतः अर्द्ध ठोस मे ये मन्द हो जाती है जबकि द्रव और गैस में विलुप्त हो जाती है।
→ इनका वेग 4 km/sec से 6 km/sec होता है।
→ ये P तरगो
की तुलना में अधिक विनाशक होती है।
पृथ्वी
की आंतरिक संरचना के बारे मे भूगर्भिक या कायातरंगे (P&S)
महत्वपूर्ण सूचनाएं प्रदान करती ही इनमें भी S तरंगों का सर्वाधिक महत्व है।
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धरातलीय तरंगें (surface
waves)- जब
काया तरंगे (P-S)
पृथ्वी की सतह पर स्थित चट्टानों से अन्योंन क्रियाएं करती है तब
धरातल पर एक नये प्रकार की तरंग उत्पन्न होती है। जिन्हे धरातलीय भूकंपीय तरंगे
कहते है। पृथ्वी की सतह पर ये जहां
उत्पन्न होती ही वहा से गति करते हुए पूरी पृथ्ती का चक्कर लगा कर पुनः उसी स्थान
पर पहुचती है अतः ये सर्वाधिक दूरी तय
करती है इसलिए इन्हें दीर्घ तरंगे भी कहा जाता है। इनसे पृथ्ती की आंतरिक सरचना के
बारे में कोई ज्ञान प्राप्त नही होता है।
इनकी प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित
है-
i.
इनमें P&S
दोनों तरंगों के गुण प्राप्त होते है अर्थात ये सभी सम्भव दिशाओं में कम्पन करती है और
सर्वाधिक विनाशकारी होती है।
ii.
ये केवल ठोस माध्यम में गमन करती
है।
iii.
इनका वेग 1.5
KM/Sec से 3KM/Sec होताहै।
iv.
इन्हें लव तथा रेले नामक दो तरणों
में विभाजित किया जाता है।
पृथ्ती की, आंतरिक संरचना तथा भूकंपीय तरंगे-
विज्ञान की वहा शाखा जिसमे भूकम्पों
का अध्ययन किया जाता के भूकम्य विज्ञान (Seismology) कहलाता
है, भूकम्प के दौराम उत्पन्न काया तरंगों के गुणों का अध्ययन पृथ्वी की आतरिक
संरचना के सर्दभ में संर्वाधिक विश्वसनीय अनुमान लगाये गये जो निम्नलिखित है-
● भूगर्भ में काया तरणें वक्राकार
(Curved) मार्ग पर चलती है। अतः गहराई में वृद्धि के साथ
चटटानों के घनत्व में वृद्धि के साक्ष्य मिलते है।
● भूगर्भ में कई स्थानो पर काया
तरंगों में अचानक विचलन और वेग में परिवर्तन के साक्ष्य मिलते है इस आधार पर
असंबद्धता के सहारे विभिन्न रासायनिक परतों का अनुमान लगाया गया है।
● पृथ्वी की सतह से औसतन 100
KM की गहराई तक काया तरंगों के वेग में वृद्धि होती है अतः यह परत
दृढ व कठोर चट्टानों से निर्मित मानी गयी है, इसे स्थलमण्डल कहा जाता है।
● 100 KM से
200 KM तक काया तरंगो के वेग में कमी तथा 200 किमी से 2900 किमी की गहराई तक पुनः वृद्धि होती है
इन परतो को क्रमशः दुर्बलता मण्डल (Asthenosphere) और मध्य
मण्डल (Mesosphere) कहा जाता है।
दुर्बलता मण्डल अर्द्ध ठोस
अर्थात प्लास्टिक और मध्यमण्डल ठोस अवस्था ये माना गया है।
● भूकम्प के दौरान भू पृष्ठ पर
कुछ ऐसे क्षेत्र भी प्राप्त होते है जहां S तरंगे प्राप्त
नहीं होती है। उसे S तरंग छाया क्षेत्र कहते है इसके आधार पर
2900 KM की गहराई मे चट्टाने द्रव अवस्था में मानी गई है।
●
S तरंग छाया क्षेत्र अधिकेंद्र से 105° के कोण
के बाद निर्मित होता है और भूकम्प के दौरान पृथ्वी के ५०% से अधिक भाग में होता
है।
● भूकम्प के दौरान अधिकेन्द्र से 105°-145°
के मध्य P-S या P तरंग
छाया क्षेत्र का निर्माण होता हो उसके आधार पर निम्न- लिखित निष्कर्ष निकाले गये हैं-
(1) 2900 KM से 5150 KM तक P तरंगों के वेग में कमी आती है, अतः यह परत द्रव अवस्था
में है और इसे बाह्य कोर कहा जाता है। (2) 5150 KM से पृथ्वी
के केन्द्र (6371KM) तक तरंगों के वेगमें वृद्धि होती है अतः
यह परत ठोस अवस्था में है इसे आतरिक कोर कहते हैं।
इस प्रकार भूकम्पीय तरंगों (P-S)
द्वारा पृथ्वी की आतरिक सरचना की रासायनिक परतों (क्रस्ट, मेंटल, कोर) तथा यांत्रिक परतों (स्थलगण्डल
दुर्बलतामण्डल, मध्यमण्डल बाध्य कोर, आंतरिक
कोर) का अनुमान लगाया है।
भू-चुम्बकत्व(Geomagnetism)
भू-चुम्बकत्व के अन्तर्गत पृथ्ती के
चुम्बकीय क्षेत्र की उत्तति उसके विकास और भविष्य में होने वाले परिवर्तनों का
अध्ययन किया जाता है।
![]() |
पृथ्ठी का अपना चुम्बकीय
क्षेत्र है जब किसी एक चुम्बक को पृथ्वी की सतह पर स्वतंत्रता पूर्वक लटकाया जाता
है तब चुम्बक का उत्तरी ध्रुव पृथ्वी के उत्तर दिशा में तथा चुम्बक का दक्षिणी
ध्रुव पृथ्वी के दक्षिण दिशा में रुकता है।
इस आधार पर वैज्ञानिकों ने यह
अनुमान लगाया कि पृथ्वी के अन्दर लोहे का एक वृहद स्थाई दण्ड चुम्बक पाया जाता है
जिसका दक्षिणी चुम्बकीय ध्रुव पृथ्वी के उत्तरी भौगोलिक ध्रुव और उत्तरी चुम्बकीय ध्रुव
पृथ्वी के दक्षिणी भौगोलिक ध्रुव के समीप है
तथा भौगोलिक अक्ष और को चुम्बकीय अक्ष के मध्य लगभग 11.5°
का कोण बनता है इसे दिकपात कोण कहते है।
→ चुम्बकीय अक्ष को दो बराबर
भागों में विभाजित करने वाली काल्पनिक रेखा चुम्बकीय विषुवत रेखा कहलाती है जो
भौगोलिक विषुवत रेखो को दो स्थानों पर काटती है चुम्बकीय विषुवत रेखा को चुम्बकीय
निरक्ष कहा जाता है जहा लटकाया गया कोई अन्य चुम्बक या चुम्बकीय सूई पूर्णता
क्षेतिज रहती है अर्थात नति कोण शुन्य रहता है।
कालान्तर में अध्ययनों से
ज्ञात हुआ कि यदि किसी चुम्बक को गर्म किया जाता है तब एक निश्चित तापमान पर
पहुंचने के पश्चात् यह अपने चुम्बकीय गुणों को खो देता की इस तापमान को क्यूरी
तापमान कहा जाता है लोहे तथा निकिल के लिए क्यूरी तापमान 500°C
से 750°C होता है। जबकि भूगर्भ में तापमान इमसे
कहीं अधिक होता है। इसलिए पृथ्वी के भीतर
लोहे का स्थाई दण्ड चुस्तक सम्भव नहीं है।
अन्ततः बॉल्टर एल्समर ने भू
जनित्र (Geo
dynamo) सिद्धात द्वारा पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र की उत्तति की
व्याख्या की। इस सिद्धान्त के अनुसार सम्पूर्ण सौर मण्डल सूर्य के चुम्बकीय
क्षेत्र के अधीन है जब इस चुम्बकीय क्षेत्र के अन्तर्गत पृथ्ती के बाह्य कोर में
स्थित आयरन और निकिल का चालक द्रव गति करता है तब यह पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र
की उत्तति करता है जो अज्ञात कारणों के अधीन चुम्बकीय द्विध्रुव की तरह व्यवहार
करता है।
पृथ्ती का चुम्बकीय क्षेत्र
तब तक बना रहेगा जब तक की बाह्य कोर में चालक दव्य गतिशील रहेगा। चालक द्रव की गति
में परिवर्तन होने पर पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में भी परिवर्तन हो जाता है।
विशेष दशाओं में पृथ्वी के चुम्वकीय ध्रुव भी उत्क्रमित हो जाते हैं। वैज्ञानिको के अनुसार आज से 7.5
लाख वर्ष पहले पृथ्ती के चुम्बकीय ध्रुवों का उत्क्रमण हुआ था।
पृथ्वी का चुम्वकीय क्षेत्र
एक आवरण की तरह पृथ्वी की सौर पवनों सौर आधियों, कोरोनल मास एजेक्शन (Coronel
Mass Ejection) (CME) तथा कॉस्मिक विकिरण से रक्षा करता है। इसके
कारण पृथ्वी पर जीवन के अनुकुल दशाऐ निर्मित हुई है।
हाल के वर्षों में यह देखा
गया है कि पृथ्वी की उत्तरी चुम्बकीय ध्रुव जो कि कनाडा के द्वीप पर अवस्थित था
सन् 2017
में विस्थापित होकर रूस के साइबेरिया में पहुच गया है जिसके
सम्भावित परिणाम निम्नलिखित है-
→ सामान्य दिशा सूचक यंत्र तथा
स्मार्ट फोन में पाये जाने वाले दिशा सूचक यत्रों के आकडों में संशोधन की आवश्यकता
होगी।
→ हवाई अण्डों में हवाई जहाज की
उडान के लिए हवाई पट्टियों का निर्माण उतरी चुम्बकीय ध्रुव की अवस्थित को ध्यान
में रख कर किया जाता है। इसके परिवर्तन के कारण अब हवाई पटिट्यों को नये सिरे से
व्यवस्थित करना होगा।
→ USA तथा
कई अन्य देशों की नो सेनाएं पनडुब्बियों के संचालन के लिए चुम्बकीय आकड़ों का
प्रयोग करती है उन्हे भी आँकड़ों मे आवश्यक परिवर्तन करने होगें।
→ कई देशों की सेनाओं के सैनिक
पैरासुट से नीचे उतरते समय चुम्बकीय आकड़ों को प्रयुक्त करते है इन्हें संशोधन करना
होगा।
→ प्रवासी पक्षी तथा प्रवासी जलीय
जीव (जैसे कछुआ आदि) उत्तरी चुम्बकीय ध्रुव की अवस्थिति के अनुसार अपनी दिशा का
निधारण करते है अतः इनके दिग्भ्रमित होने की संभावना है।
→ सूर्य की सतह से निकले आवेशित
कण पृथ्ती के चुम्बकीय क्षेत्र द्वारा पृथ्ती के ध्रुवों की और विक्षेपित कर दिये
जाते हैं कुछ आवेशित कण चुम्बकीय ध्रुव पर पहुंचकर वहां वायुमण्डन कुछ की गैसों से
क्रिया कर विशेष प्रकार की चमक उत्पन्न करते है जिसे उत्तरी गोलाई मे Aurora
Borealis (अरोरा बोरेयोलिस) और दक्षिणी गोलार्द्ध में Aurora
Australis (अरोरा ऑस्टियोलिस) कहा जाता है। उत्तरी ध्रुव के
विस्थापित हो जाने से अरोरा के क्षेत्रों में परिवर्तन आ जायेग जो पर्यटन सम्बधी
गतिविधियों को प्रभावित करता है।
वैज्ञानिको के अनुसार पृथ्ती
के चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता में लगातार कमी हो रही है यह सम्भव है कि किसी समय
पृथ्वी का चुग्वकीय क्षेत्र समाप्त हो जाये। चुम्बकीय क्षेत्र विहीन पृथ्ती को कई
खतरे उत्पन्न हो सकते है यही नहीं सम्भवतः पृथ्वी के चुम्बकीय ध्रुव भी भविष्य में
उत्क्रमित हो सकते है।
☆ जहां से चुम्बकीय विषुवत रेखा
गुजरती है उस स्थान से विशेष प्रकार के रॉकेट छोडे जाते है। चुम्बकीय विषुवत रेखा
भारत के केरल के थुम्ता के समीप से गुजरती है।
पुरा
चुम्बकत्व (Paleomagnetism)
पुरा चुमकत्व के अंतर्गत
पुरानी चट्टानो,
अवसादो और पुरातात्विक सामग्रियों में अंकित पृथ्ती के अतीत के
चुम्बकीय आंकडो का अध्ययन किया जाता है।
ज्वालामुखी उद्गार में जब
लावा भू- पृष्ठ पर आता है तब उसमें उपस्थित लौड खनिजो का तापमान क्यूरी तापमान से
अधिक होता है किन्तु जब लावा ठण्डा होने लगता है और ताममान क्यूरी तापमान से कम हो
जाता है तब लोड खनिज उस के चुम्बकीय क्षेत्रकें अनुरुप स्वयं व्यवस्थित कर लेते
हैं और उनमे तत्कालीन चुम्बकीय आकडे अकित हो जाते है यदि यह चट्टान दुबारा क्युरी
तापमान से अधिक तापमान को प्राप्त नहीं करती है तब इसमें ये आंकडे अनतः काल तक बने
रह सकते है। इन्ही कार ओकडो का अध्ययन पुरा चुम्बकत्व कहलाता है।
पुरा चुम्बकत्व का निम्नलिखित महत्व है –
① पुरा चुम्बकत्व सम्बन्धी
अध्ययन पृथ्वी की उत्पति व विकास संग्वधी
महत्वपूर्ण आँकड़े प्रदान करता है।
② पृथ्ती के चुम्बकीय क्षेत्र में
होने वाले परिवर्तनो के कालानुक्रम का ज्ञान हो जाता है जो भविष्य के परिवर्तनों
के लिए नवीन दृष्टिकोण प्रदान करता है।
③ इसके द्वारा महाद्वीपों के
विस्थापन तथा सागर नितल प्रसरण के संदर्भ महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त होती है।
④ सम्पूर्ण पृथ्वी के भूगर्भिक
इतिहास को समझने में सहायता मिलती है।



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